योसा बुसोन (1716-1783) को जापानी हाइकु के चार स्तंभों में गिना गया है। जापान में बुसोन से बड़े कवि एकमात्र मात्सुओ बाशो (1644-1694) ही हैं। बाशो को जापान के महानतम कवि के रूप में स्थापित करने में बुसोन और इनके साथियों की बड़ी भूमिका थी। कवि के अलावा बुसोन एक विलक्षण चित्रकार और खुशनवीस भी थे। बुसोन और इनके साथियों ने मिलकर हाइकु के इतिहास को खंगाला, और बाशो समेत कई पुराने कवियों को ये काव्य की मुख्यधारा में लेकर आये। इन्होंने एक लम्बा और स्वस्थ जीवन जिया।
ये अंत तक सक्रिय बने रहे। चीनी कविता और कला की इन्हें गहरी पैठ थी; और छंद, मात्रा, इत्यादि के नियमों को तोड़कर इन्होंने कई ऐसे प्रयोग किये जिनमें हमें जापानी कविता में आधुनिकतावाद के प्रादुर्भाव की ध्वनि सुनाई पड़ती है। इतना ही नहीं। अपने समय के ऐतिहासिक ज़रुरत को पूरा करते हुए इन्होंने आस-पास चल रहे हाइकु के वाणिज्यीकरण से लड़ने का माद्दा भी दिखाया, जिस कारण काव्य-विधा की गंभीरता और प्रासंगिकता आगे तक बनी रही।
बुसोन ने देश के तीन सबसे बड़े साहित्यिक नगरों में निवास किया। इनका बचपन ओसका के पास एक गाँव में, जवानी एडो में, और बाद का जीवन क्योटो में बीता। जीवन भर चित्रकारी इनकी आमदनी का माध्यम बनी रही। लेखन इनकी आर्थिक ज़रुरत कभी नहीं रही। बावजूद इसके, कविता के प्रति अतुल्य प्रतिबद्धता के साथ इन्होंने कई संकलनों का संपादन किया, और हाइकु के दो स्कूल भी शुरू किये। इन्होंने तीन हज़ार से अधिक हाइकु और सौ से अधिक लम्बी कविताएँ लिखीं। जापानी कविता को आगे बढ़ाने में इनकी बड़ी भूमिका रही। इन सबके बावजूद एक लम्बे समय तक बुसोन को इतिहास में स्थान नहीं मिला। बाशो को बाशो बनाने के धुन में बुसोन और उनके आगे-पीछे की पीढ़ी की लिगेसी लम्बे समय तक इतिहास के अभिलेखागारों में दबी रह गई।
बुसोन की मृत्यु के बाद एक शताब्दी से भी अधिक समय तक इन्हें भुला दिया गया। उन्नीसवीं सदी के आख़िरी वर्षों में जापान में चल रहे साहित्यिक नवजागरण से दौरान बुसोन अज्ञातवास से वापस लौटे। इनकी वापसी में मासाओका शिकि (1867 – 1902) का बड़ा योगदान रहा, जिन्होंने यूरोप और अमेरिका में चल रहे साहित्यिक आन्दोलनों से जापान को जोड़ा। उनका मानना था कि बुसोन बाशो से अधिक महत्वपूर्ण कवि थे, और अपनी बात पर वे जीवन भर अड़े रहे। बुसोन की कविताओं को केंद्र में रखते हुए शिकि ने न केवल जापान में आधुनिकतावाद का प्रचार-प्रसार किया, बल्कि जापानी कविता को भी दुनियाभर के पाठक वर्ग तक पहुंचाया। यह आकस्मिक नहीं है कि जापानी हाइकु का चौथा और आखरी बड़ा स्तम्भ शिकि को माना गया।
शिकि और बुसोन अपने-अपने समय के पुनरुत्थानवादी थे। शिकि ने स्थापित किया कि बुसोन का चित्रकार होना इनकी कविता को अस्वाभाविक रूप से चित्रात्मक, आलंकारिक, और ऐंद्रिक बनाता था। फलस्वरूप, इनकी कविता में आधुनिक रहस्यवाद और स्वच्छन्दतावाद दोनों के तत्व दिखाई पड़े। बुसोन ने चीन और जापान के पारंपरिक काव्य-प्रतीकों को अपनी कल्पनाशीलता के ज़ोर पर जोड़कर कई नए काव्य-प्रतीक और मुहावरे गढ़े, और इनका मानना था कि कविता में “बोलचाल की भाषा का इस्तेमाल करते हुए बोलचाल के मुहावरों से आगे निकलने की कोशिश की जानी चाहिए।” इनके इस मान्यता की पुष्टि ख़ुद इनकी कविताओं ने की।
एक प्रतिभासंपन्न कवि होने के बावजूद बुसोन ख़ुद एक उदासीन अतीत में जीवन बिताते रहे। इनमें हीनता और श्रेष्ठता की मिश्रित भावना थी, जो इनके व्यक्तित्व का दिलचस्प पहलू है। ये बाशो समेत पिछले महान कवियों की तुलना में ख़ुदको साधारण मानते थे, और अपने आसपास के प्रतिभाहीन वाणिज्यिक कवियों से लगभग चिढ़ते थे। कविता के वाणिज्यीकरण के खिलाफ बाशो को स्थापित करना इनका मुख्य उद्येश्य था, लेकिन इस मुहीम को चलाते हुए बाशो की श्रेष्ठता का आतंक भी इनपर हावी हो गया। बाशो के पदचिन्हों पर चलते हुए बुसोन ने एक एकाकी जीवन बिताया, लेकिन कहीं न कहीं इसके पीछे एक असुरक्षा की भावना भी थी। बाशो को समर्पित कर इनकी प्रसिद्द कविता में यह भावना स्पष्ट देखी जा सकती है –
खोलते हो जिस क्षण तुम बोलने को मुँह
उठती है शरद की हवा
और जमा देती है होंठ ।
बाशो के कठोर शरद के आगे बुसोन निरुत्तर हो जाते थे। शायद यही कारण था कि बाशो के सात काव्य-संग्रहों की तुलना में बुसोन ने अपने जीवनकाल में एक भी संग्रह प्रकाशित नहीं किया। उल्टा इन्होंने संकलन प्रकाशित करने वाले अपने समकालीन कवियों का खुलकर विरोध किया, यह कहकर कि अपनी साधारण कविताओं को प्रकाशित कर वे अपना ही नुक्सान कर रहे हैं। यह अलग बात है कि चित्रकारी गुज़ारा चल जाने के कारण इन्हें अपनी कविताएँ अलग से प्रकाशित करने की कभी आवश्यकता नहीं पड़ी। बुसोन की मृत्यु के बाद इनके एक शिष्य ने इनकी 868 कविताओं का संकलन निकाला, जिसकी कविताओं को पढ़कर हमें पता चलता है कि अपने समय की कविता को लेकर ये केवल कोरी चिंता से ग्रस्त नहीं थे, बल्कि अपने कृतित्व और सर्जनात्मकता से जीवन भर उसका डटकर सामना भी करते रहे। इनकी कविताएँ अक्सर इनकी मनोस्थिति का ही बखान करती दिखलाई पड़ीं। दृश्य में दर्शन की विलक्षण रचना!
प्रस्तुत है योसा बुसोन की कुछ कविताएँ –
एक बूढ़ा
काटता बाजरा
हँसिये सा झुका हुआ ।
नाशपाती के सफ़ेद फूल
चाँद की रौशनी में एक औरत
पढ़ती चिट्ठी ।
एक मोमबत्ती से
दूसरे में रौशनी –
वसंत की शाम ।
सफ़ेद गुलदाउदी के आगे
हिचकिचाती कैंची
एक क्षण ।
भोर –
जलकौवों से बची मछलियाँ
छिछले पानी में ।
शाम की हवा –
पानी के हिलकोरे
बगुले की टांगों पर ।
धुनकी के पत्ते बिखरे हुए
सूखा झरना
पत्थर यहाँ-वहाँ ।
छोटी रात –
इल्ली के रेशों पर
ओंस की बूँदें ।
बांस की टहनियाँ
रास्ता दिखाते आदमी का
तलवार उठा हुआ ।
मंदिर की विशाल घंटी पर
झपकी लेने को बैठती
तितली ।
चुभती ठण्ड
बिस्तर के पास मैंने रखा पाँव
मृत पत्नी की कंघी पर ।
जापानी कविता पर प्रकाश्य किताब का अंश. पहल 113 से साभार.
Is lekh ke liye bahut dhanyvaad. Mujhe Haiku bahut pasand he. Kal hi kuchh pad rha tha sardiyin ke upar https://www.japanpowered.com/japan-culture/winter-haiku-collection (Busan aur Basho dono ke hi hae) kintu malum na tha itna. Maine kavita likhi par padi bahut kam. Kuchh mahine pehle hi kintu jab kuchh Hindi kaviyon ko pada to bahut haerani huyi ki Mahadevi, Agyay, Sumitranadan is sab se mae vanchit rha hamesa. Mujhe kavitayen padni he par kisko padun maalum nhi, Hindi sikhni he aur sundar chhayavaadi kavitayen likhni he…. happy to find your blog.
Nice Information. bhut achhi jankari di aapne.
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वाह! लाजवाब!!
बहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति
बहुत ही सुंदर लिंक धन्यवाद आपका
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