वृत्तान्त

रात छूटते निकलनी थी बारात
कि गाँव से फ़ोन आया
बड़ी माँ नहीं रही

कुटुंब में मृत्यु
यानी अब हम अपवित्र हैं
हमारा छुआ कोई नहीं खायेगा
बाभन नहीं पढ़ेगा मंतर
इधर गड़ चुका था पण्डाल
और लड़की को क्या मुँह दिखायेगा सोच
जहाँ खड़ा था वहीं बैठ गया दूल्हा !

एक आदमी जो अबतक चुप बैठा था
याद करने लगा बड़ी माँ से अपनी आख़िरी मुलाक़ात
जिनका पति चल बसा था अल्पायु में
जो देस गाँव घूमती नब्बे साल जी
और मरी भी तो स्ट्रोक खाकर
रातोंरात

फिर लम्बी बात चली
पण्डाल के चमकते अँधेरे में
जहाँ किरणों जैसी धारियाँ सजी थीं
और बीच में सूरज की जगह पंखा लटका था
तय हुआ कि बात बाहर नहीं निकलेगी
बुजुर्गों तक तो कतई नहीं
तीसरे दिन सब नहा धोकर छिलवा लेंगे नाखून
और सब दोष माफ़

चौथे दिन जब दादी के रोने से गूँज उठा घर
सब खुश थे नवदम्पति को घेरे
सबसे अधिक बच्चे जिनमें से एक ने
नई चाची को आई लव यू भी बोला

और इस तरह
एक छोटे से क़स्बे के
एक छोटे से परिवार ने
अपने धर्म का पालन कर
धर्म पर विजय पाई ।