मेरे नगर में
मर रहे हैं पूर्वज
ख़त्म हो रही हैं स्मृतियाँ
अदृश्य सम्वाद !
किसी को नहीं याद –
हम ग़ुलाम अच्छे थे
या आज़ाद ?
बहुत ऊँचाई से गिरो
और लगातार गिरते रहो
तो उड़ने जैसा लगता है
एक अजीब सा समन्वय है
डायनमिक इक्वीलिब्रियम !
अपने उत्त्थान की चमक में
ऊब रहे
या अपने अपने अंधकार को
इकट्ठी रोशनी बतलाकर
डूब रहे हैं हम ?
थोड़े हम ऊंचे हुए
थोड़े पहाड़ उतर आए
पर पता नहीं
इस आरोहण में
हम चल रहे
या फिसल ?
हम दौड़ते रहे
और कहीं नहीं गए
बांध टूटने
और घर डूबने के बीच
जैसे रुक सा गया हो
जीवन ।
यहाँ इस क्षण
न चीख़
न शांति
जैसे ठोकर के बाद का
संतुलन ।
– सौरभ राय