नर्मदा के जल में शहद घुला है
मधुमक्खियों से भरे पेड़
डूबते सूरज की ओर मुँह किये
सुस्ता रहे हैं
आइये
हम भी बैठें ।
सुधीर जी !
अभिनव यादव !
देखिये… दूर तक फैले
कछुओं जैसे पहाड़
जादुई प्राचीन नक्काशीदार
जिनमें से एक की पीठ पर
बैठ गया है सूरज
सूरज
जिससे आँख मिलाना नामुमकिन था
टहनी पर बैठी चिड़ियों की गपशप में
दाने की तरह शामिल है
आग जलाकर घेरे में बैठ गये हैं हमारे पूर्वज
आइये
हम भी बैठें ।
चट्टानों की दरारों में बैठे झींगुर
अलार्म घड़ी की तरह बज उठे हैं
कि दिन ख़त्म
अब बैठने का वक़्त हो रहा है
कैक्टस के काँटें आश्वस्त हैं
लड़खड़ाकर चलना सीखते
नवजात किसी वनैल पशु के पाँव में चुभने का
अब उनमें दर्द नहीं
बैठने लगी हैं काँटों पर ओस की बूँदें
हम भी अब बैठें ।
पलभर के लिये
सूरज बैठ गया है आँखों के सामने
पुरानी याद की तरह
पत्तों पर बैठ रही है–
हवा
दिन के सिरहाने बैठ गई है रात
हम भी कोई बढ़िया सी जगह देखकर बैठें ।
बैठ गये हैं सुधीर जी
अभिनव कहाँ हो ?
आओ–
बैठें ।
(वैशाख 2018, धूपगढ़ को याद करते हुए)