कुछ दिन पहले मथुरा में स्वामी बालेन्दु द्वारा आयोजित नास्तिकों के एक सम्मेलन के निरस्त कर दिए जाने की ख़बर सामने आई। सम्मलेन के विरोध में संत, महंत, और इमाम एकजुट होकर खड़े हो गए। मथुरा में धार्मिक गुटों का उन्माद और आक्रोश देखकर जनपद में धारा 144 लगाने का निर्देश पारित किया गया। विवाद से पहले स्वामी बालेन्दु ने एक फेसबुक पोस्ट के ज़रिये सम्मलेन के आयोजन का उद्येश्य स्पष्ट किया था जिसमें उन्होंने समाज में धर्म के नाम पर फैले अधंविश्वास और पाखंड को दूर करने के लिए शिक्षा और वैज्ञानिक सोच के आधार पर भविष्य को गढ़ने की इच्छा जताई थी। आयोजन के रद्द कर दिए जाने के बाद उन्होंने फेसबुक पर लिखा – Continue reading
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ईश्वरीय सत्ता को चुनौती और भारतीय परंपरा
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सुनकर क्या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्मकथा?
दांते ने कहा था कि हर लेखक अपने लेखन के ज़रिये अपनी कहानी सुना रहा होता है। या दूसरे शब्दों में कहें तो हर लेखक अपनी आत्मकथा लिखता है। यह बात केवल दांते के समय और समाज पर लागू नहीं होती। आदिकवि और वेदव्यास अपने ग्रंथों के रचयिता ही नहीं, उनकी घटनाओं के साक्षी भी रहे हैं। भर्तृहरि से लेकर निराला, अज्ञेय, और शमशेर सरीखे कवि भी अपनी बात कहते नज़र आते हैं। कविता में यह विचार कई तात्कालिक प्रश्नों के रूप में भी देखने को मिलता है – चाहे वह कविता में मौलिक अनुभवों का प्रश्न हो या कवि के अहम् की तलाश का। कविता में पाठक स्वभावतः कवि को ही देखता है। Continue reading
भाषा के नए प्रश्न
हिंदी में एक कहावत है – “कोस कोस पर पानी बदले, चार कोस पर बानी।” हम इस बात को अक्सर बड़े गर्व से कहते हैं, मगर क्या हर चार कोस में भाषा का बदलना हमारे पिछड़ेपन का प्रतीक नहीं? क्या यह नहीं दर्शाता कि भारत की एक बहुत बड़ी जनसँख्या अपने चार कोस की सीमा से बाहर निकल ही नहीं पाती है? निकलने की ज़रुरत भी शायद नहीं पड़ती है। इसी चार कोस के गांवों में इनके तमाम आत्मीय, मित्र मिल जाते हैं। इसी चार कोस के दायरे में इनकी खेती-बाड़ी, शादी-ब्याह, व्यापार, बाज़ार इत्यादि की ज़रूरतें भी पूरी हो जाती हैं। मगर क्या भाषाओं का अपने अपने चार कोस के वृत्त में सिमटे रहना गर्व की बात है? Continue reading
तटस्थता में हस्तक्षेप का स्वर : थिक नात हान की कविताएँ
1967 में मार्टिन लुथर किंग जूनियर ने वियतनाम के कवि और बौद्ध भिक्षु थिक नात हान को नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित करते हुए कहा था – “मैं किसी दूसरे ऐसे व्यक्ति को नहीं जानता जो इस पुरस्कार के इतना योग्य है। वियतनाम के इस शान्तिदूत की बातों पर अगर ग़ौर किया गया तो विश्व शान्ति कायम हो सकती है।” इसी साल अमेरिका के एक चर्च में हान से एक व्यक्ति ने सवाल किया – “आप वियतनाम के अपने हमवतनों से इतना प्रेम करते हैं तो अमेरिका में क्या कर रहे हैं? अपने देश जाइए।” हान का जवाब था – “हमारे गृहयुद्ध की जड़ें अमेरिका में हैं। अगर आपके सिपाही मेरे देश में निर्दोषों की हत्या कर सकते हैं तो क्या मैं आपके देश में शांति की बात नहीं कर सकता?” Continue reading
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कवि का मोक्ष कविता है
‘मोक्षधरा’ सुधीर रंजन सिंह का दूसरा काव्य संग्रह है। इनके पहले और दूसरे संग्रह के बीच दो दशकों की लम्बी समयावधि, जहाँ एक तरफ कवि की परिपक्वता से हमें आश्वासित करती है, वहीं दूसरी तरफ कवि की अपनी ज़मीन को धैर्यपूर्वक तलाशने के प्रति प्रतिबद्धता की ओर भी इशारा करती है। इसी बीच उन्होंने भर्तृहरि के काव्य श्लोकों की अनुरचना का महत्वपूर्ण काम किया है। ‘मोक्षधरा’ की कविताओं में भी वह झलकता है। वही सघन जीवन-बोध जिसमें राग और विराग समान अनुभव के दो छोर हैं। कवि कभी चिड़िया में सूर्योदय को दुबका हुआ देखता है, तो कभी लोगों का अपनी-अपनी बसों में घुसना अपने घरों में घुसने की तरह देखता है। Continue reading
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