1967 में मार्टिन लुथर किंग जूनियर ने वियतनाम के कवि और बौद्ध भिक्षु थिक नात हान को नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित करते हुए कहा था – “मैं किसी दूसरे ऐसे व्यक्ति को नहीं जानता जो इस पुरस्कार के इतना योग्य है। वियतनाम के इस शान्तिदूत की बातों पर अगर ग़ौर किया गया तो विश्व शान्ति कायम हो सकती है।” इसी साल अमेरिका के एक चर्च में हान से एक व्यक्ति ने सवाल किया – “आप वियतनाम के अपने हमवतनों से इतना प्रेम करते हैं तो अमेरिका में क्या कर रहे हैं? अपने देश जाइए।” हान का जवाब था – “हमारे गृहयुद्ध की जड़ें अमेरिका में हैं। अगर आपके सिपाही मेरे देश में निर्दोषों की हत्या कर सकते हैं तो क्या मैं आपके देश में शांति की बात नहीं कर सकता?”
थिक नात हान का बचपन दक्षिण वियतनाम में बौद्ध भिक्षु और विद्यार्थी के रूप में गुज़रा। इन्होंने अपने मित्रों के साथ मिलकर एक संगठन की स्थापना की जिसके माध्यम से इन्होंने अपने देश में कई स्कूल और अस्पताल स्थापित किये, और गांवों का पुनर्निर्माण किया। 1960 में हान विभिन्न धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन करने अमेरिका के प्रिन्सटन यूनिवर्सिटी गए, मगर तीन वर्षों के पश्चात इन्हें अपने देश वापस लौटना पड़ा। गृहयुद्ध शुरू हो चुका था। इस दौरान हान ने शान्ति के पक्ष में कई कविताएँ लिखीं। इन्हीं दिनों इनके संगठन पर साम्यवादी होने का आरोप लगाकर सरकार ने इन्हें मिलने वाले सभी अनुदान बंद कर दिए।
हान ने अनुभव इनकी कविताओं में साफ़ झलकते हैं। इन्हीं अनुभवों से जन्मी गहरी मानवीयता और समाज में बढ़ती हिंसा का विरोध – ये दोनों स्वर हान के साहित्य संसार में मौजूद हैं। अपनी प्रसिद्द किताब ‘वियतनाम – लोटस इन अ सी ऑफ़ फायर’ में इन्होंने इसी मानवीयता और आतुरता के मेल से बनी एक नई विचारधारा की नींव रखी है। यह सम्बद्ध बौद्ध आन्दोलन की विचारधारा है, जिसके अंतर्गत बौद्ध धर्म के जटिल विचारों को जन तक पहुंचाने का दायित्व बुद्धिजीवियों का है। बौद्ध दर्शन को रोज़मर्रा के जीवन में ढालते हुए शान्ति और प्रेम के पथ पर चलकर ही हम अपने जीवन को सार्थक बना सकते हैं। वर्ग चेतना के प्रति जागरूक यह विचारधारा भारत के चार्वाक दर्शन से मिलती-जुलती है, मगर अपने मूल स्वभाव में यह भौतिकवादी न होकर आदर्शवादी ही है।
अपनी इस विचारधारा को व्यावहारिक जीवन में ढालते हुए हान और इनके शिष्यों ने मिलकर वियतनाम युद्ध के दौरान लोगों को जिज्ञासा और परामर्श के माध्यम से भय, तनाव, और हिंसा के भार से मुक्त करने का काम किया। हान का ‘सम्बद्ध बौद्ध’ प्लेटो के ‘फिलोसोफर किंग’ से प्रेरित लगता है। तेरहवीं शताब्दी के वियतनामी राजा त्रान हान तोंग भी इसी मार्ग पर चले थे, और वैराग्य के पथ पर चलते हुए भी सामाजिक जीवन में कई बदलाव किए। हान का यही तटस्थ हस्तक्षेप इनकी निम्न पंक्तियों में दिखलाई पड़ता है –
मैं यूगांडा में भूख से मर रहा बच्चा हूँ
मेरे पांव बांस की पतली डंडियाँ हैं,
और मैं ही हूँ उसे बन्दूक बेचता
क्रूर सौदागर।
कवि इन पंक्तियों में स्वयं को क्रूर करार देता है, मगर इस क्रूरता के पीछे उसकी सभी प्राणियों के प्रति असीम करुणा है। तभी तो अगली ही पंक्तियों में कवि बारह साल की शरणार्थी लड़की के बलात्कारी के प्रति संवेदना रखने की हिमाकात करता है, जिसमें वह स्वयं को देखता है। किसी भी कवि को ऐसी बात कहने के लिए गहरे यथार्थबोध, साहस, और इन सबसे भी अधिक करुणा की दरकार है। करुणा ही इस कवि का मूल स्वभाव दिखलाई पड़ता है। तभी तो कवि कहता है कि उसके ह्रदय का द्वार संसार की समस्त करुणा समेट कर बना है। यही संवेदना कवि का अहम् है। वरना कवि क्यों चाहेगा कि चाय को इतने धीरे से पिया जाए जैसे उसकी प्याली की धुरी पर पृथ्वी घूम रही हो! कवि के अनुसार हर क्षण का गुण उसमें व्याप्त संतुलन है। यही संतुलन कवि के उन बिम्बों में सार्थक होता है जिनमें कवि कभी वसंत में वियोग का स्वर सुनता है तो कभी चिड़ियों के दारुण कलरव में किसी के रोने को महसूस कर पाता है।
जब हान को वियतनाम से देश निकाला मिला तो ये अमेरिका जाकर मार्टिन लुथर किंग जूनियर से मिले। अब तक पश्चिम की मीडिया ने वियतनाम युद्ध को लोकतान्त्रिक और बर्बरता के खिलाफ बताया था। हान ने अमेरिका के नागरिकों तक सच्चाई पहुंचाने में ज़रूरी भूमिका निभाई। हान के प्रयासों का नतीजा मार्टिन लुथर किंग जूनियर का वह विख्यात भाषण रहा, जिसमें उन्होंने वियतनाम युद्ध में अमेरिका के कृत्यों की भरसक निंदा की। इसी साल हान को उन्होंने नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित भी किया।
वियतनाम युद्ध के समाप्त होने के बाद भी हान का देश निकाला कायम रहा। अगले कुछ वर्षों तक अलग अलग देशों में अपनी विचारधारा का विस्तार करने के बाद ये अंततः फ़्रांस के पल्म नामक गांव में बस गए। पिछले पांच से अधिक दशकों से ये यहीं रह रहे हैं और बौद्ध धर्म और कविताओं के माध्यम से विश्व शान्ति का पाठ पढ़ा रहे हैं।
हान समाजशास्त्री होकर भी कवि हैं। बतौर एक बौद्ध भिक्षु ये समाज की तरफ ताकते हैं, और कवि का स्वर इसी समाज के एक साधारण व्यक्ति की वेदना और विडम्बनाओं को उकेरता है। तभी तो ये लिखते हैं –
धरती तब तक निरापद रहेगी
जब तक हम करेंगे प्रेम।
हान की कविताएँ लगातार कम में बेशी की तलाश करती नज़र आती हैं। रूमी के शब्दों में कहा जा सकता है कि कवि बूँद में सागर देखने की क्षमता रखता है। मेरे ख्याल से हान के सन्दर्भ में यहाँ रहस्यवाद नहीं है। इनकी कविताएँ लगभग रहस्यविरोधी जान पड़ती हैं। इनके रूपकों में बेशी का लघुकरण होता है न कि लघु का अतिरंजन। कवि जब अपने ह्रदय के संगीत को सभी जीवों के जन्म और मरण से जोड़कर देखता है तो कवि चाहता है कि हम अपने ह्रदय में करुणा भरें। कवि जब आँखों से आकाश को चूमने की बात करता है तब कविता देखने के सुख से सरोकार रखती है, न कि आकाश के विस्तार से। ये कविताएँ प्रकृति और श्रृंगार से जुड़कर भी नई ज़मीन तलाशती नज़र आती हैं।
हान की कविता में मुद्राओं को विशेष महत्व दिया गया है। हाथ की तुलना उस पर्वत से की गई है जिसने धरती और आकाश को मिलने से रोक रखा है। ‘हथेलियों में मुँह’ नाम की एक और कविता में यही हाथ क्रोधग्रस्त कवि की आत्मा को उसके शरीर से निकलने से रोकता है। बुद्ध की मुद्राएँ हान को लगातार प्रकृति में दिखलाई पड़ती हैं, कभी चाँद के रूप में तो कभी पर्वतों के रूप में।
हान का रचना संसार विस्तृत है। कविताओं के अलावा इन्होंने बाल-कथाओं से लेकर आलोचनात्मक निबंध तक लिखे हैं। प्राचीन बौद्ध ग्रंथों पर इनका काम महत्वपूर्ण हैं। इनकी सौ से भी अधिक किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें चालीस अंग्रेजी में हैं और बाकी विएतनामी भाषा में। अपनी इसी रचनाशीलता की बदौलत इन्होंने बौद्ध दर्शन को पश्चिम तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई है। अमेरिका और यूरोप में इन्होंने छह मठ और दर्ज़नों कार्यशालाओं की स्थापना की है। इसके अलावा इन्होंने हज़ारों छोटी-बड़ी मंडलियाँ बनाई हैं जहाँ छात्र मिलकर बौद्ध दर्शन पर विचार-विमर्श करते हैं।
हान बौद्ध दर्शन के महायान परंपरा को मानते हैं, जिसके अनुसार अधिकांश मनुष्यों के लिए निर्वाण का मार्ग अकेले ढूँढना कठिन है और उन्हें इस कार्य में सहायता मिलनी चाहिए। ये मानते हैं कि धरती के सभी प्राणी एक दूसरे से जुड़े हैं और सभी के निर्वाण के लिए मिलकर प्रयत्न करना आवश्यक है। कविता के माध्यम से दर्शन को समझने का चलन बौद्ध धर्म में आज भी प्रचलित है। हान से पहले कई कवियों ने बौद्ध दर्शन पर कविताएँ लिखी हैं। धम्मपद से लेकर आधुनिक साहित्य में ये चलन व्याप्त है, मगर इस बात बार जोर देना आवश्यक है कि हान इस प्रथा से बाधित नज़र नहीं आते, बल्कि इस धारा को मोड़ते दिखलाई पड़ते हैं। इनकी कविताएँ अपने मौलिक स्वरुप में हमसे बात करती हैं, मगर रूप के स्तर पर पुरानी नज़र आती हैं। दया, नश्वरता, कामना, पीड़ा और सहानुभूति के जरिए ये कविताएँ कई आधुनिक सवाल खड़े करने की जुर्रत करती हैं।
हान की कविताओं में सहस्तित्व को विशेष स्थान दिया गया है। आधुनिक होकर भी ये कविताएँ व्यक्तिवाद और आत्मनिर्भरता जैसी नई आस्थाओं का खंडन करती हैं। इनकी कविताओं में संसार में व्याप्त सह-निर्भरता बार-बार विषयवस्तु बन कर सामने आती है। तभी तो ये लिखते हैं –
तुम अपने भीतर एक फूल सींचते हो
कि मुझे रूप मिले
मैं अपनी गुफाओं के झाले झाड़ता हूँ
कि तुम्हें मिल सके रोशनी!
लगातार पढ़ते हुए हान की कविताओं में कई पैटर्न दिखने लगते हैं जो उल्लेखनीय हैं। इन कविताओं का व्याकरण सरल है। क्रियाएँ लगभग हमेशा सकारात्मक गतिविधियों को दर्शाने का काम करती हैं। इनके विशेषण गुण दर्शाते हैं और संयोजक शब्द शंका पैदा नहीं करते। विचारों की भीड़ में स्व से सम्मुख कराती इन कविताओं में हवा, ज़मीन, घास, चाय, और चुप्पी के प्रति गहरी जागरूकता है, जो जीवन के साधारण और अनुमत पहलुओं में भी सुख और प्रेम की तलाश करती नज़र आती हैं।
शायद इसी जागरूकता के कारण पश्चिम के कुछ विचारकों ने हान की तुलना बोधिसत्त्व से की है। अपनी किताब ‘फेसेस ऑफ़ कम्पैशन’ में लिटन लिखते हैं कि आधुनिक परिवेश में महात्मा गांधी, नेल्सन मंडेला, और हेलेन केलर जैसे शान्ति के प्रवर्तक ही आधुनिक बोधिसत्त्व हैं। वर्जिनिया वूल्फ का भी मानना था कि ‘जीवन को नज़रंदाज़ कर शान्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती।’ हान भी शान्ति की तलाश में केवल आतंरिक संघर्षों तक सीमित नहीं रहते और सामाजिक प्रतिरोध के स्तर तक चले आते हैं। हिंसा के खिलाफ हान का यह वक्तव्य स्पष्ट है –
इस कवि की मत सुनो
आज सुबह मेरी कॉफ़ी में आंसू की एक बूंदी पड़ी मिली थी
मेरी बातें कतई मत सुनो
सुनने की क्या ज़रुरत?
आज सुबह की कॉफ़ी में डूब गया खून का एक कतरा
मुझे कोई शिकायत नहीं
मुझसे बस ये कॉफ़ी नहीं पी जाती
गलती मेरी ही है
कि जम गई है मेरे फेफड़े में बची सांसें
इस कविता में हवा का जमना अ-लगाव दर्शाता है, और कवि का स्वर उसका विरोधाभास। यह स्टोइक स्वभाव कविताओं में बार बार दिखलाई पड़ता है, जिसमें कवि लिप्त होकर भी वैरागी है। कवि के अपने अनुभव अपना भोग हुआ जीवन कवि को चिंतित और निर्लिप दिनों बना देता है। वह तट पर रहकर भी तटस्थ नहीं रह पाता। तभी तो कवि तथागत की तलाश करता हुआ लिखता है –
मेरी ह्रदय में गहरी दबी आंसू की बूँदें
कंकड़ बन चुकी हैं।
ज़िज़ेक का मानना है कि उत्तरआधुनिकता में व्याप्त विडम्बनाओं का समाधान अगर तलाशना है तो हमें रोमांटिक्स की शरण में लौटना होगा। अ-लगाव से मुक्ति का मार्ग प्रकृति और प्रेम में है, न कि विद्रोह में। हान शायद इस बात की समझ रखते हैं। ऐसे में हान की कविताएँ निरंतर मानवीय विकृति के विरोध में प्रकृति का पक्ष लेती एक सनातन विषाद की तरह सुनाई पड़ती हैं, और हान चुपचाप उत्तरआधुनिकता और रोमांटिक्स के बीच एक पुल का निर्माण करते दिखलाई पड़ते हैं। उम्मीद करता हूँ कि इस वियतनामी कवि की कविताएँ आपको पसंद आएंगी –
यह क्षण
इस क्षण, धीरे से पियो अपनी चाय
मानो उसकी धुरी पर घूम रही हो धरती
– धीरे, बड़े आराम से,
बिना कल की सोचे
बस इस क्षण को ग्रहण करो
बस, यह क्षण ही जीवन है।
अच्छी खबर
अच्छी खबरें
वे नहीं छापते
अच्छी खबरें
हम लिखते हैं दिन रात
और चाहते हैं कि आप उन्हें पढ़ें
अच्छी खबर यह है कि तुममें जीवन है शेष
इस बर्फानी सर्दी में भी
वो पुराना पेड़ खड़ा है;
अच्छी खबर यह है कि तुम्हारी नन्ही आँखें
आकाश चूम सकती हैं;
अच्छी खबर यह कि तुम्हारा बच्चा सामने है
हाथों में ऊर्जा है शेष
और बच्चे को गोद में भर लेने की सम्भावना बची है।
वे सिर्फ बुरी खबर छापते हैं;
अच्छी खबर हम और आप हैं –
हम अपनी क्रूरता छिपाकर
करते हैं प्रेम
और सहेजते हैं करुणा।
देखो सड़क किनारे एक फूल
मुस्कुरा रहा है
शायद कोई बिसरा गीत गा रहा है
सुनो उसे ध्यान से आँखें मूंदकर
उसे थाम लो और उड़ो!
अच्छी खबर यह है कि
उड़ना संभव है।
मुद्रा
इस कवि की मत सुनो
आज सुबह मेरी कॉफ़ी में आंसू की एक बूंदी पड़ी मिली थी
मेरी बातें कतई मत सुनो
सुनने की क्या ज़रुरत?
आज सुबह की कॉफ़ी में डूब गया खून का एक कतरा
मुझे कोई शिकायत नहीं
मुझसे बस ये कॉफ़ी नहीं पी जाती
गलती मेरी ही है
कि जम गई है मेरे फेफड़े में बची सांसें
तुमने कहा – “मुझे तुम्हारी आँखों से रोने दो”
मेरे पास आँखें नहीं हैं
“चलने दो मुझे अपने दो पैरों से”
मेरे पाँव कट चुके हैं
मैंने अपने हाथ बढ़ाकर
तुम्हारे दुस्वप्नों का स्पर्श किया है
तुमने कहा – “मुझे मुक्ति नहीं चाहिए
अभी जीवन है शेष”
और मैं भटक रहा हूँ मुक्ति की तलाश में।
मेरे हाथ मेज़ पर साबुत हैं
सन्नाटा चुपचाप मुझे देख रहा है
समंदर के आंसू किनारों को भीगा रहे हैं
पांच ऊँचे पर्वतों ने मिलकर
धरती और आकाश को मिलने से
रोक रखा है।
दूर आकाशगंगा के पार
ब्रह्माण्ड के गहरे भेद खुल रहे हैं
मेरा दाहिना हाथ मेज़ पर स्थिर है
हमारे जागने के इंतज़ार में
मेरा हाथ मेज़ पर स्थिर है
जैसे समंदर के किनारे पड़ी है टूटी हुई एक सीप
जैसे गोली खाई लाश पड़ी है कहीं
जैसे ग्रह नक्षत्र गिर गए हैं अपनी जगहों से
समंदर ने हिलना बंद कर दिया है जैसे।
मेरा हाथ मेज़ पर स्थिर है
पांच ऊँचे पर्वतों ने मिलकर
धरती और आकाश को मिलने से
रोक रखा है –
ब्रह्माण्ड के भेद खुल रहे हैं
तारे किसी अनजान भाषा में फुसफुसा रहे हैं
मेरा हाथ मेज़ पर स्थिर है
उस क्षण की प्रतीक्षा में
जब मैं एक कर दूंगा धरती आकाश
मेरा हाथ
इस अनंत ब्रह्माण्ड में छोटा सा यह हाथ
एक पर्वत है।
अदर्शन
पत्ते की नोंक झुक रही है
ओंस भारी हो चली है।
कुछ फल पक रहे हैं
सुबह के ओर देखते हुए
सूरज की रोशनी में कुमुद चमक उठा है
बगीचे की ओर बढ़ते रास्तों पर बादल का दूधिया पहरा
सरक रहा है
मैं देख रहा हूँ वैराग्य और बचपन को
एक साथ
बड़ी देर रात को
एक दिया बुझते बुझते रह गया
एक कली खिल गई है
दूर रेगिस्तान में कहीं;
कहीं एक ठंडा सा तारा
जिसने ज़िन्दगी में खेत नहीं देखा
नहीं देखा दुख, सुख
पेड़ पौधे खलिहान नहीं देखे
एक ठंडा तारा
अदृश्य हो गया इस क्षण –
जैसे एक सन्तान विषाद।
हथेलियों में मुँह
मैंने हथेलियों से अपना मुँह ढक रखा है
अरे नहीं! मैं रो नहीं रहा।
मैंने हथेलियों से अपना मुँह ढक रखा है
कि मेरा एकांत शेष रहे
मेरे दोनों हाथ बचा रहे हैं
सहेज रहे हैं
रोक रहे हैं
मेरी आत्मा को मुझे त्यागने से
जो जल रही है
क्रोध की आग में।
एक दूसरे की तलाश
मैं तलाश रहा हूँ तुम्हें
हे तथागत!
बचपन से ही तलाश रहा हूँ
अपनी पहली साँस में सुनी थी तुम्हारी पुकार
और तबसे तुम्हारी तलाश में हूँ
चला हूँ दुर्गम रास्तों पर
सही हैं ठोकरें
टकराया हूँ निराशा, भय, क्रोध से
गुजरा हूँ गहन, दुर्गम जंगलों से
पार किए हैं अथाह सागर
लांघें हैं पहाड़, और लड़ा हूँ गरजते मेघों से
कितनी बार मरा हूँ; और हुआ हूँ अकेला
प्राचीन रेगिस्तानों के धूसर रेत में
मेरे ह्रदय में गहरी दबी आंसू की बूँदें
कंकड़ बन चुकी हैं।
हे तथागत, मैंने सपनें में भी ओंस की बूंदों को पिया है
जो टिमटिमाती हैं दूर आकाशगंगा की रोशनी में।
मेरे पैरों के निशान दुर्गम ग्रहों पर मिले हैं
मैं चिल्लाया हूँ पाताल की गहराइयों से
क्षुब्ध, अतृप्त,
कई जन्मों तक
मैं तरसा हूँ तुमसे मिलने को
बंद आँखों के मौन में
देखा है तुम्हें विचरते हुए
तुम और मैं
एक हैं
हमारे बीच की दूरी केवल उतनी जितना मेरे मन में दबा संदेह;
कल अकेले चलते हुए
मैंने देखा था सड़क पर बिखरे पत्तों को एक साथ उड़ते हुए
और किवाड़ से झांकता दुर्दांत चाँद
अचानक एक पुराने दोस्त की याद दिलाने लगा
और तारे सुनाते रहे तुम्हारे गीत
रात भर बरसती रही करुणा
बिजली की हलकी गर्जनाओं के बीच।
फिर तूफ़ान उठा
मानों धरती और आकाश के बीच लड़ाई छिड़ गई हो;
और आखिर में जब तूफ़ान रुका, बादल छंटे
और अपने एकांत में झूमता चाँद लौटा
धरती और आकाश को शांत करता हुआ
ठीक उसी वक़्त आईने में झांकते हुए
मैंने देखा था खुदको
और देखा था तुम्हें मुस्कुराते हुए, हे तथागत!
चाँद ने मुझे लौटाया है वो सब
जो मैंने कभी खो दिया था
अब न खोने का डर है, न पाने की इच्छा
आज हर फूल, पत्ता, धूल का हर कण मझे जानता है।
जिधर मुड़ता हूँ, तुम
अजन्मे, अमर्त्य तुम
पर्वतों में अडिग, शांत, मुस्कुराते हुए
ध्यान की मुद्रा में बैठे
मैंने आईने में, और खिड़की से, और दीवारों पर देखा है तुम्हें
जब मिला हूँ तुमसे, हे तथागत!
जैसे मिला हूँ अपने आप से
देखो, हम कितने एक हैं!
देखो गहरा नीला आकाश
क्षितिज के रंग में बर्फ के मनोरम पर्वत
और गुनगुना हल्का सूरज
तुम्हारी करुणा के प्रतीक हैं
तुम तथागत, मेरे पहले प्रेम हो
चिरनवीन, निर्मल प्रेम
तुम प्राण हो, प्राणियों में बहते हुए
तुम्हारे झरने के आरपार देखते हुए
मैंने पाई है आतंरिक शान्ति, और देखने की दृढ़ता भी
मेरे मन की धार आज तुम्हारी नदी में जा मिली है
सागर, मेघ, बारिश बन
अब मैं बांटता हूँ तुम्हारी करुणा
अनंत काल तक।
मुझे मेरे असली नाम से पुकारो
नहीं मैं जा नहीं रहा
मैं तो अभी पहुँच ही रहा हूँ
गौर से देखो – मैं हर क्षण पहुँच रहा हूँ
किसी हरी टहनी पर फूल बन खिलने
एक नन्हे पक्षी सा, अपने पंखों पर सवार
घोंसले में फुदकते हुए
एक नया गीत सुनाने मैं पहुँच रहा हूँ
पंखुड़ी पर बैठे इल्ली की तरह
पत्थर में दबे हीरे की तरह
मैं पहुँच रहा हूँ।
मैं पहुँच रहा हूँ
हंसने और रोने के बीच
तुम्हारे दुख में शरीक
मेरे ह्रदय का यह संगीत
सभी प्राणियों का लय है।
मैं पतंगा हूँ जो रूप बदल रहा है
नदी की सतह पर,
और मैं ही हूँ निर्दयी पक्षी जो झपटता है
पतंगे पर
मैं तालाब के प्रतिबिम्ब में गोते खा रहा
सुखी दादुर हूँ
और मैं हूँ उसकी ताक में बैठा
ज़हरीला सांप
मैं यूगांडा में भूख से मर रहा बच्चा हूँ
मेरे पांव बांस की पतली डंडियाँ हैं,
और मैं ही हूँ उसे बन्दूक बेचता
क्रूर सौदागर
मैं बारह साल की शरणार्थी लड़की हूँ
नाव में बलात्कृत छलांग लगा रही हूँ सागर में
और मैं ही हूँ जलदस्यु
मेरी संवेदनाएं मर चुकी हैं
मैं ही क्रूर राजनेता हूँ
और मैं ही उनकी झूठी इज्ज़त की लड़ाई में
बंदी शिविरों में भूख से मरता नागरिक
मेरा आनंद वसंत सा है
जहाँ धरती के सबसे सुन्दर फूल खिलते हैं
मेरी वेदना जैसे आंसुओं की व्याकुल नदी
सागर को पीछे धकेलती हुई
मुझे मेरे असली नाम से पुकारो
कि मैं सुन सकूँ अपना उल्लास और कोलाहल एक साथ
देख सकूँ अपने सुख और दुख को एक जीवन की तरह
मुझे मेरे असली नाम से पुकारो
कि मैं जाग सकूँ नींद से
और खुला छोड़ सकूँ अपने ह्रदय का द्वार
जो बना है
संसार की समस्त करुणा समेट कर।
निस्तब्ध
चूम लो यह धरती
बढ़ो और स्पर्श करो निस्तब्धता का
चलो और छुओ जीवन को
हर कदम हवा की नई बयार है
हर कदम पर खिले हैं नए फूल
चूम लो धरती को अपने पांवों से
धरती को सौंपो अपनी ख़ुशी
धरती तब तक निरापद रहेगी
जब तक हम करेंगे प्रेम।
हमारी सच्ची विरासत
ब्रह्माण्ड मोतियाँ हैं
मैं इनमें से कुछ चुनकर तुम्हें सौंपना चाहता हूँ
जीवन का हर क्षण एक मोती है
जिसमें चमकते हैं धरती और आकाश
बादल और पानी
इन मोतियों को पिरोती डोर सांस है
देख लो एक क्षण में सृष्टि का यह चमत्कार
हर सांस चिड़ियों का गीत है
सांस ध्यान में लीन प्राचीन वृक्ष है
खिलता हुआ फूल है
सांस प्रेम का दर्शन है।
तुम संसार के सबसे धनी व्यक्ति हो
भिखारियों सा क्यों व्यर्थ कर रहे हो इन सांसों को?
बंद करो बेसहारा बने रहने का नाटक
लौट कर अपना लो अपनी सच्ची विरासत
भोग लो अपने हिस्से का सुख, प्रेम
और बाँट दो सभी के साथ।
थाम लो इस क्षण को हथेली में
पार करो संकटों की काल्पनिक नदी एक गहरी सांस के साथ
और गले लगाओ जीवन को।
अन्तरंग
तुम मैं हो और मैं तुम हूँ
नुमायाँ है कि हम अन्तरंग हैं
तुम अपने भीतर एक फूल सींचते हो
कि मुझे रूप मिले
मैं अपनी गुफाओं के झाले झाड़ता हूँ
कि तुम्हें मिल सके रोशनी;
मैं तुमसे टिका हूँ और तुम टिके हुए हो मुझसे
मैं हूँ कि तुम्हें शान्ति मिले
तुम हो कि मुझे मिल सके ख़ुशी!
वसंत का रूप मुझे रोकता है
वसंत आता है चुपचाप,
शरद लौट जाता है
हँसकर
पर्वतों पर दोपहर की धूप में
विषाद पिघलता है।
लड़ाइयाँ निशान छोड़ती हैं
हवाओं पर
वियोग और मृत्यु फूलों की तरह
रास्तों पर बिछे हैं
मैं एकांत में इन्हें हटाता हूँ
और ढूंढ निकालता हूँ अपना ह्रदय
सुर्ख लाल
जो मेरे त्याग की निशानी है
वसंत का रूप मुझे रोकता है
मैं पर्वतों तक पहुंचना चाहता हूँ
भोग रहा हूँ अवसाद
मेरी आत्मा जम गई है
मेरा ह्रदय वीणा के तार सा काँपता है
तूफानी रात में पड़ा हूँ अकेला
हाँ, सबकुछ यहीं हैं, सचमुच
वसंत का आगमन सच है
मगर चिड़ियों के दारुण कलरव के बीच
मुझे सुनाई देता है दूर किसी के रोने का स्वर
बसंती हवा एक गीत है
मेरा प्रेम और मेरी करुणा है;
मैं अकेला ही आया था
और जाऊंगा अकेला ही।
घर लौंटने के कई रास्ते हैं
जो एकांत में मुझे अपना हाल सुनाते हैं
वसंत आ चुका है
सभी दिशाएं गा रही हैं अवसाद के गीत
देखो,
खिल उठा है वसंत।
अनुवाद एवं टिपण्णी – सौरभ राय / वसुधा 98 से साभार