हिंदी में एक कहावत है – “कोस कोस पर पानी बदले, चार कोस पर बानी।” हम इस बात को अक्सर बड़े गर्व से कहते हैं, मगर क्या हर चार कोस में भाषा का बदलना हमारे पिछड़ेपन का प्रतीक नहीं? क्या यह नहीं दर्शाता कि भारत की एक बहुत बड़ी जनसँख्या अपने चार कोस की सीमा से बाहर निकल ही नहीं पाती है? निकलने की ज़रुरत भी शायद नहीं पड़ती है। इसी चार कोस के गांवों में इनके तमाम आत्मीय, मित्र मिल जाते हैं। इसी चार कोस के दायरे में इनकी खेती-बाड़ी, शादी-ब्याह, व्यापार, बाज़ार इत्यादि की ज़रूरतें भी पूरी हो जाती हैं। मगर क्या भाषाओं का अपने अपने चार कोस के वृत्त में सिमटे रहना गर्व की बात है?
आज भाषा की जो स्थिति है, वह कभी समय की भी थी। हर चार कोस में समय बदलता था। हमारे अपने देश में समय देखने का रिवाज़ नया है। पहले सूरज की स्थिति और पहर नाप कर समय का अंदाज़ा लगा लिया जाता था। घड़ी के निर्माण के बाद भी पश्चिमी देशों में एक लम्बी अवधी थी जब हर गांव में चर्च द्वारा नियुक्त समयपाल घण्टागर का समय रखता था। हर गांव अपने समय का हिसाब रखता था। यह उन्नीसवीं सदी में रेलरोड के विकास के साथ बदला। लोग अब अपने महाद्वीप के एक छोर से दूसरे छोर तक सफर करने लगे। इससे जन्मी अनियमित्ता और अव्यवस्था से जूझने के लिए समय के मानकीकरण की ज़रुरत महसूस हुई। न सिर्फ एक प्रान्त में बल्कि विश्व व्यापी रूप से समय की देखरेख करने के लिए ग्रीनविच मीन टाइम को मानक मानकर संसार के विभिन्न देशों में समय क्षेत्र के अनुसार समय का निर्धारण किया गया।
अपने रोज़ मर्रा के जीवन में हम समय का केवल एक रूप देखते हैं। समय का मूल अस्तित्व वैज्ञानिक है। न्यूटन से लेकर आइंस्टीन तक सभी ने समय को घड़ी के डायल से निकाल कर जटिल सूत्रों में जगह दी है। भाषा का अस्तित्व समय के विपरीत है। वह स्थायी नहीं है। सस्यूर के मुताबिक भाषा केवल ध्वनियों के बीच का अंतर नहीं बल्कि विचारों की असमानता का भी सूचक है। यही विचारों की असमानता हमारी वैचारिक प्रगति का चालक है। भाषाओं का एकीकरण जहाँ हमें पिछड़ेपन से मुक्ति दिला सकती है, वहीं हमारी वैचारिक भिन्नता का क्षय कर सकती है।
अंग्रेजी भाषा की बात करें तो हम अक्सर इस तथ्य पर ज़ोर देते हैं कि उपनिवेशवाद की वजह से भाषा का प्रचार हुआ है। गौरतलब यह भी है कि पिछले पांच-छह दशकों से इस भाषा का विकास भी अमरीका और ब्रिटेन के बाहर ही संभव हुआ है। बोर्खेज़, नाबोकोव, मुराकामी से लेकर नायपॉल और रुश्दी तक सभी ने अंग्रेजी भाषा को नए मुहावरे और नई शैली से संपन्न किया है। अंग्रेजी भी इस तरह का लचीलापन प्रदान करती है कि आर के नारायण के ‘मालगुडी डेज़’ को पढ़ते हुए हमें महसूस होने लगता है कि हम अंग्रेजी नहीं, बल्कि कन्नड़ साहित्य पढ़ रहे हैं।
अरुंधति राय को भी जब ‘गॉड ऑफ़ स्माल थिंग्स’ के लिए बुकर पुरस्कार से सम्मानित किया गया तो कारण विषय वस्तु न होकर प्रस्तुति थी। इन्होंने अंग्रेजी को मलयालम भाषा के शब्द देकर दोनों भाषाओं को समृद्ध किया। पुरातनपंथी जिन भाषाओं की फूहड़ अंग्रेजी से तुलना कर अवहेलना करते थे, आज इन्हीं भाषाओं के लेखकों को इनके डिक्शन के लिए महान करार दिया जा रहा है। वैसे भी उत्तरआधुनिकतावाद के दौर में कंटेंट की मौलिकता की बहस को लगभग ख़त्म करार दिया गया है। फ्रेंच फिल्मकार गोदार के मुताबिक कंटेंट कहाँ से लिया जा रहा है, इससे ज़रूरी सवाल है यह है कि कंटेंट को कहाँ पहुँचाया जा रहा है।
इस सन्दर्भ में यह प्रशन पूछना ज़रूरी है कि अंग्रेजी की तरह हिंदी का विकास क्यों संभव नहीं हो पाया है। ‘हिंद-हिंदी-हिन्दुस्तान’ के सतही नारे लगाते किसी भी स्व-घोषित भाषा के रक्षक से बातचीत कर पता चल जाता है कि हमारी भाषा के पतन में इनका बड़ा योगदान है। इनका प्रस्ताव है ‘अविकास’ – यानी चार कोस के आगे बानी को बढ़ने ही न देना।
परसाई ने हमें इसी पिछड़ी हुई मानसिकता के ख़िलाफ़ आगाह किया था। उन्होंने लिखा था कि हिंदी भाषा का विकास तब तक संभव नहीं है जब तक हम लोक भाषाओं और उर्दू को न अपनाएँ। सामंतवादी सोच रखने वाले आदिवासी और लोक भाषाओं को हिंदी में जगह नहीं देना चाहते और हिन्दुत्ववादी उर्दू के खिलाफ हैं। सबसे दुखद बात यह है कि भाषा के ये भक्षक ही हमारी संस्कृति के रक्षक भी बने हुए हैं।
भाषा के सन्दर्भ में इस बात को समझना नितांत आवश्यक है कि भाषाएँ ज्ञान का समग्र रूप हैं। और पुरानी कहावत के मुताबिक़ ज्ञान बांटने से, न कि कैद करने से या सामने वाले पर थोपने से बढ़ता है। एक बंगाली परिवार से निकल, मराठी मूल की कोंकणी स्त्री से विवाह कर, कन्नड़ भाषी क्षेत्र में हिंदी का लेखक होने के नाते इस बात की पुष्टि मैं ख़ुद कर सकता हूँ। बैंगलोर जैसे उदार पंथी शहर में भी भाषाओं के बीच सहकार्यता स्थापित करने के लिए हम कई सालों से जूझ रहे हैं मगर भाषाएँ कोलाबोरेट करने के बजाय कम्पीट करती नज़र आ रहीं हैं। यह प्रत्यावर्ती सोच है, जिससे सबका नकसान हो रहा है।
ज़ाहिर है कि यह स्थिति केवल हिंदी के साथ नहीं, बल्कि बाकी भाषाओं के साथ भी है। पचास वॉल्यूम में प्रकशित ‘पीपलस लिंगविस्टिक सर्वे ऑफ़ इंडिया’ में गणेश देवी बोली और भाषा के बीच के भेद को निर्मूल करार देते हैं। उनका शोध यह साबित करता है कि कैसे भारत सरकार द्वारा निर्धारित 122 भाषाओं के मुकाबले भारत में 780 भाषाएँ मौजूद हैं, और इनकी संख्या तेज़ी से घट रही हैं। कारण कुछ भी हो, मगर कूप मंडूक बने रहने से भाषाओं का लुप्त होना लगभग तय है।
भाषाओं के रक्षक जहाँ अविकास का रास्ता इख़्तियार करते नज़र आ रहे हैं, हमें विकास का रास्ता अपनाना होगा। हिंदी में उर्दू और लोक भाषाओं के अलावा आज इंटरनेट की डिजिटल भाषा का प्रवेश नितांत आवश्यक है। हमारे समय में बढ़ती डिजिटल क्रांति ने भाषाओं के उन्मूलन की गहरी संभावना हमारे सामने रखी है। हिंदी की रक्षा के लिए तीर कमान निकालने वालों की संख्या की तुलना अगर हिंदी विकिपीडिया में योगदान देने वालों की संख्या से की जाए तो वास्तविकता सामने आती है। इंटरनेट पर उपभोगताओं की संख्या की बात करें तो भारतीयों की संख्या दूसरी है, मगर इसी इंटरनेट पर इस्तेमाल की जा रही शीर्ष तीस भाषाओं में कोई भारतीय भाषा मौजूद नहीं है। यानी तमाम भारतीय भाषाएँ मिलकर भी इंटरनेट का 0.1% कंटेंट नहीं उपजा पा रही हैं। इसकी तुलना रुसी (5.9%) या जर्मन (5.8%) भाषा से की जाए तो हमारी दयनीय स्थिति का पता चलता है।
फेसबुक, गूगल वगैरह भारत में इंटरनेट का विस्तार करने पर ध्यान दे रहे हैं, मगर भाषाओं पर ध्यान नहीं दिया जा रहा। ये गांव-गांव जाकर अंग्रेजी सिखाएँगे। हम इसके खिलाफ नहीं हैं, मगर हिंदी और बाकी भारतीय भाषाएँ अगर तकनिकी क्रांति की बलिवेदी पर कुर्बान हो जाती हैं तो इनके साथ साहित्य, ज्ञान, दृष्टि और वैचारिकता के बड़े कोष भी लुप्त होते चले जाएंगे। भारतीय सरकार भी ‘डिजिटल इंडिया’ की मुहीम में भाषाओं को दरकिनार करती नज़र जा रही है। अगर हिंदी और बाकी भारतीय भाषाओं को डिजिटल मीडिया के समय में आगे निकलना है तो इस स्थति को बदलना होगा।
डिजिटल मीडिया के दौर में प्रवेश करने के बाद भी भाषाओं की मुश्किलें ख़त्म नहीं होंगी। अंग्रेजी से हिंदी के अनुवाद क्षेत्र में गूगल का एकाधिकार है। मगर इनके सॉफ्टवेयर को अभी लम्बा रास्ता तय करना है। रूसी, चीनी और जापानी भाषाओं की तुलना में गूगल के हिंदी प्रारूप की स्थिति खराब ही है। हमारे भाषानुवाद की अपनी मुश्किलें भी हैं। सन्दर्भ समझे बिना भाषानुवाद संभव नहीं है। उदहारण के तौर पर ‘आई प्ले’ में प्ले का अनुवाद बजाना, खेलना या अभिनय करना विधेय पर निर्भर करता है। हर भाषा के साथ ऐसे कई सवाल हैं जो तकनिकी समस्याओं से बढ़कर हैं।
इसी तरह जब अंग्रेजी में टाइप की गई भाषा का शब्दशः अनुवाद जब हिंदी में किया जाता है तो हम वर्तनी के भी लिए गूगल पर निर्भर हो जाते हैं। धूप, धूल जैसे शब्दों की वर्तनी गूगल पिछले कई सालों से धुप और धुल लिखता आ रहा है। डर इस बात का है कि ये शब्द कुछ साल और गलत ही रहे तो डिक्शनरी को अपनी वर्तनी में बदलाव लाने पड़ेंगे। डिजिटल संसार की ताक़त को कम आंकना हमारी गलती है। गूगल को हमारी भाषा समझने में अभी थोड़ा समय और लगेगा। हम साले लिखना चाहते हैं और गूगल ट्रांसलेटर सेल लिख देता है। सारी को साड़ी लिख देता है। यहां भी बाजार का ही खेल है। ‘जंगल के जानवर और वर्तनी की गलतियां’ कविता में मैंने इसी विषय पर लिखा है –
पिछली दफ़ा गेंदा लिखना चाहा
और गैंडा लिख दिया
काफ़ी देर तक
एक पूरी की पूरी कविता
मेरी नाक में चुभती रही
एक बार हिप्पी की जगह हिप्पो लिखा
कीबोर्ड की ग़लती थी
कि ‘आई’ ‘ओ’ के इतने पास था
वैसे मैं हिप्पु भी लिख सकता था
मग़र हिप्पो लिखा
फिर उस दिन मैंने हिप्पो के नथुनों से
धुआं निकलते देखा
पुराने रॉक गीतों पर उन्हें झूमते देखा
उस दिन मालूम पड़ा
कि हिप्पो कितना शांतिप्रिय जानवर है
घोड़ा को घड़ा लिख दिया
इसे सुधारना आसान था
मग़र कई दिनों के बाद
जब सचमुच का घोड़ा देखा
मुझे प्यास बोध हुआ
मेरी विस्मृति का यह अद्भुत रूपक था
जो मेरी ग़लतियों से निकल
घोड़े की प्यास बुझा रहा था
फिर एक बार
हँस को हंस पढ़ा
और हंस पड़ा
बचपन से ही
हाथी को हाथ
लिखता आया था
अच्छा हुआ कि इस वजह से
हाथों पर छड़ी पड़ी थी
हाथी पर पड़ती तो शायद बिदक जाता
बस इसी तरह
एक हाथी ने हाथों पर चलते हुए
मेरी भाषा में प्रवेश किया था
ताज्जुब यह
कि मैं बटोर को बटेर
बालू को भालू
और बाग़ को बाघ की तरह ही
देखता, सोचता
याद करता था
मेरी कल्पना में इनके नाम गलत थे
रूप नहीं
अफ़सोस!
इन दिनों मैं अक्सर
जानवरों के नाम
और वर्तनी से अधिक
भूल जाता हूँ
इन जानवरों को।
लुडविग विट्गेंस्टाइन ने कहा था – ‘मेरी भाषा की सीमा मेरे संसार की सीमा है।’ भाषाओं के लम्बे इतिहास में इंटरनेट की प्रक्रिया कई नए पश्न खड़े करती है। उदहारण स्वरुप आज से पहले ऐसा कभी नहीं हुआ कि सिर्फ ध्वनि ज्ञान के सहारे हम किसी भाषा में लिख सके हों। मुझे बांग्ला लिपि की मामूली समझ है, मगर सिर्फ बोल सकने की बाबत मैं अंग्रेजी के माध्यम से अब बांग्ला में लिख सकता हूँ। इससे मुझे फायदा हुआ है, मग़र भाषा को नुक्सान ही पहुंचा है।
कार्ल मार्क्स ने ‘जर्मन आइडियोलॉजी’ में लिखा है कि भाषा मानव चेतना जितनी ही पुरानी है। भाषा हमारी स्मृति है। वे यह भी लिखते हैं कि सत्ता की स्मृति कमज़ोर होती है और लोक की कहीं ज़्यादा ताक़तवर। भाषाएँ नहीं रहेंगी तो स्मृतियों का ह्रास होगा, और लोक चेतना कमज़ोर पड़ती जाएगी। डॉ रामविलास शर्मा लिखते हैं कि निराला के भी लिए भाषा-द्वंद्व क्लिष्ट या सरल होने के बीच नहीं बल्कि जीवन संग्राम के अनुकूल अथवा प्रतिकूल होने के बीच था।
भारतीय भाषाओं को अभी लम्बा सफर तय करना है। भाषाएँ मिलकर एक दूसरे को समृद्ध करते हुए या तो आगे बढ़ सकती हैं या एक दूसरे से उलझकर कमज़ोर पड़ सकती हैं। डिजिटल संसार में भी हमारी भाषाओं को लाने की कोशिश को ज़ोर पकड़ना होगा। इस दिशा में लेखक, पाठक और बुद्धिजीवियों को पहल करने की ज़रुरत है।
वसुधा 97 से साभार
बेहतरीन लेख है।
धन्य हो तुम भारतीय युवा, यदि ये विचार किसी वृद्ध व्यक्ति के होते तो कोई “सुबह का भूला रात को घर लौट आया है” कह संतोष कर लेता लेकिन सौरभ, तुम तो वो प्रभात हो जो अमावस के अँधेरे को दूर भगा भाषा को ज्योति मान करते उसे नई दिशा देता दिखता है|
समस्त भारतीयों को एक डोर में बाँधने की क्षमता रखती हिंदी भाषा की दुर्गति देख मुझ बूढ़े पंजाबी ने कुछ और नहीं तो हिंदी भाषा पर लिखे लेखों को पढ़ मन ही मन संतोष किया है कि भाषा का अस्तित्व चिरकाल तक बना रहेगा| सौरभ, अपने दृष्टिकोण को समझाने हेतु मैं तुम्हारे निबंध के पहले परिच्छेद को प्रवक्ता.कॉम पर प्रस्तुत लेख, “अदालतों से अंग्रेजी को भगाओ” की प्रतिक्रिया में अपनी टिप्पणी में दोहरा रहा हूँ और आशा करता हूँ कि तुम्हें इस पर कोई आपत्ति न होगी| हिंदी भाषा के लिए तुम्हारे प्रबुद्ध विचारों के लिए तुम्हें मेरा साधुवाद|
Great article, Thanks for your great information, the content is quiet interesting. I will be waiting for your next post.