वे कह सकते हैं कि भाषा की ज़रुरत नहीं होती
साहस की होती है
फिर भी बिना बतलाये कि एक मामूली व्यक्ति
एकाएक कितना विशाल हो जाता है
कि बड़े-बड़े लोग उसे मारने पर तुल जायें
रहा नहीं जा सकता
– रघुवीर सहाय, दो अर्थों का भय’ कविता से
जर्मन दार्शनिक लुडविग विट्गेंस्टाइन के मुताबिक हमारी चेतना हमारी अभिव्यक्ति से पुरानी है।
यानि हम भाषा के माध्यम से नहीं, बल्कि दृश्यों के माध्यम से अपनी बात कहते और सुनते हैं। हर शब्द के साथ एक अभिप्रित दृश्य जुड़ा होता है। शब्दों के इन दृश्यों को बनाने बिगाड़ने का, और इनसे खेलने का काम भाषा का है। दुनिया की तमाम समस्याओं का कारण और कुछ नहीं बल्कि इन दृश्यों के उनके अभिप्रित रूप में आदान-प्रदान कर पाने में हमारी सामूहिक अक्षमता है।
लेकिन यहाँ एक पैराडॉक्स भी है। शब्दों के उनके अभिप्रित रूप में न पहुंचाने की हमारी अक्षमता ही शब्द शक्तियों की परिचालक भी है। लक्षणा और व्यंजना के आभाव में भाषा के मशीनी होने का खतरा बना रहता है। जैसे कंप्यूटरों की भाषा, जहाँ शब्दों के साथ शून्य और एक द्वारा रचित दृश्य निर्धारित हैं। जहाँ कोई गड़बड़ी संभव नहीं। मशीनी भाषा अनुसाशन की भाषा है, जीते, जागते और सोचते मनुष्यों की नहीं। अपनी इसी आतंरिक विरोधाभास के कारण भाषाओं को अपना जीवन होता है। भाषाएँ जन्म लेती हैं, अपना जीवन भोगती हैं, और लुप्त हो जाती हैं। ठीक हम मनुष्यों की तरह।
शब्द और उनसे बनते-बिगड़ते दृश्यों को समझ कर भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन किया जा सकता है। मेरी तरह हिंदी समुदाय से सम्बन्ध रखने वाले, तथा हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं के साथ कार्यरत व्यक्तियों के लिए इन भाषाओं के बीच के एक व्यापक अंतर को समझते हैं। जहाँ अंग्रेज़ी के शब्द लगभग हमेशा एक रैशनल और टू डायमेंशनल दृश्य बनाते हैं, वहीं हिंदी के हर शब्द का विस्तार ध्वनि और दृश्य के पार एक तीसरे सांस्कृतिक आयाम में सतत चलता है। यह तीसरा आयाम हमारे शब्दों की उत्पत्ति, तथा उनके विकास और चरित्र से जुड़ा है।
हिंदी के शब्दों का उद्गम अलग-अलग समय और परिस्थितियों में हुआ है, जो हमारी सामूहिक स्मृति और सामाजिक यथार्थ में दर्ज है। हिंदी भाषा का निर्माण अनगिनत लोकभाषाओं और बोलियों को जोड़ कर किया गया है। इन्हें सुनने, पढ़ने, और महसूस करने वाला व्यक्ति केवल शब्दों और दृश्यों का नहीं, उनके चरित्र और स्वभाव का भी अनुभव कर रहा होता है। उदहारण स्वरुप ‘लम्हा’ और ‘क्षण’ जैसे दो अलग शब्दों पर गौर फरमाते हैं। इनके अर्थ एक हैं, इनसे जन्म लेते दृश्य भी एक हैं, लेकिन इनके चरित्र अलग हैं। ‘क्षण’ की बुनियाद दार्शनिक है, और ‘लम्हे’ की रोमांटिक। ‘क्षण’ सुनते ही अज्ञेय की कविताओं का और भगवान बुद्ध के उपदेशों का स्मरण हो आता है, और ‘लम्हा’ शब्द फ़िल्मी गीतों की याद दिलाता है। हमारी भाषा में ऐसे कई उदहारण मिल जाएंगे। अंग्रेजी भाषा के सांस्कृतिक पक्ष का अनुभव हिंदी समुदाय के व्यक्ति के लिए कठिन है। परंपरा और सामूहिक स्मृति का आभाव हमें इससे वंचित करता है।
हिंदी के शब्दों के इस चारित्रिक आयाम की वजह हमारी भाषा का नया होना भी है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ठीक पहचाना है कि जो भाषा जितनी नई होती है वह उतनी ही ताक़तवर होती है। नई भाषा पुरानी भाषा को अपदस्थ कर अपना स्थान ग्रहण करती है। हिंदी की विश्लेषि भाषा ने संस्कृत की समासी भाषा को अपदस्थ किया है। यही हिंदी को उर्वर भी बनाती है। भाषा की इसी उर्वरता ने हिंदी साहित्य के पक्ष को काफी मज़बूत किया है। तभी प्रेमचंद, हजारीप्रसाद, रेणु, परसाई, से लेकर उदय प्रकाश तक हर लेखक ने अपने समय और सन्दर्भ के हिसाब से एक नई भाषा को ईजाद किया है। नई भाषा का यह लचीलापन आज भी हर लेखक को यह मौका देती है कि वह अपनी अलग ज़मीन तलाशे।
कविता पर यह बात अधिक लागू होती है। छायावाद तक के हर कवि की अपनी अलग भाषा का विकास नैसर्गिक रूप से चलता आया था, लेकिन प्रयोगवाद के दौरान इसने तीव्र गति पकड़ी। इस दौरान कवियों पर यह दबाव अलग से पड़ने लगा कि हर कवि की अपनी अलग भाषा हो। अकविता में जोर पकड़ती वग्मिता ने भी इस धारणा को बल दिया। रही सही कसर पश्चिम में ज़ोर पकड़ती कॉपीराईट जैसी पूंजीवादी अवधारनाओं ने पूरी कर दी। इस काल में अज्ञेय, शमशेर, मुक्तिबोध, धूमिल, सहाय सरीखे कवि एक समय में लिखते हुए भी अपनी अलग भाषा में लिखते पाए गए। राजकमल चौधरी की ‘मुक्ति-प्रसंग’ हमारी भाषा की अजेय कविता अपने डिक्शन के दम पर ही है –
चलता हुआ मैं अपने गांव की नदी का नाम भूल जाता हूँ
बालीगंज-झील के अँधेरे में जकड़ लेते हैं
मुझे नीले ऑक्टोपस
शेयर बाजार की चढ़ती–उतरती सीढियां लहूलुहान कर देती हैं मेरा चेहरा
योगासन करती हुई देवकन्याएं फ्री स्कूल–स्ट्रीट में
शहर की सारी बीमारियाँ तोहफे में देती हैं मुझे बिना मांगे
बिना मांगे मैं टाइपराइटर–मशीन
बन जाता हूँ
साहित्य की ही तरह यह बात हिंदी समुदाय पर भी लागू होती है। हिंदी के हर व्यक्ति की अपनी निजी भाषा है। हर गांव, देहात, कसबे, शहर में एक अलग भाषा का निरंतर विस्तार चल रहा होता है। ‘ऊटा आयता’ और ‘वंदु’, ‘एरेडू’, ‘मुरू’, ‘नालकू’ हम बैंगलोर के हिंदी भाषियों की भाषा का हिस्सा स्वतः बन चुका है। भाषाओं के इस विस्तार में हस्तक्षेप केवल जगह और जातियों तक सीमित नहीं रहता। मीडिया और मनोरंजन के माध्यम से प्रसारित कुछ भाषाएँ ऐसी भी हैं जिन्हें कोई नहीं बोलता। इन बनावटी भाषाओं का हिंदी पर गहरा प्रभाव रहा है, उदारवाद के दौर में इसकी ताकत कई गुना बढ़ी है। जगह और जातियों से अधिक आज मीडिया और मनोरंजन हमारी भाषा को प्रभावित करता है। मीडिया और मनोरंजन की भाषाओं का हमारी सोच पर भी गहरा असर पड़ा है।
पहले मीडिया की बात करते हैं। एक समय था जब टीवी या रेडियो पर ‘समाचार’ सुनना शाम को थके हारे नागरिक के लिए एक सुखद अनुभव होता था। श्रमजीवी वर्ग का व्यक्ति यह जानकार संतुष्ट होता था कि प्रजातंत्र जीवित है, वहीं सुदूर कहीं कुछ गलत होना उसे थोड़ा अनुशासित भी रखता था। बौद्धिक वर्ग के कुछ लोगों को छोड़कर लगभग सभी मानते थे कि प्रेस आज़ाद है, और उस आज़ादी की परिभाषा से संतुष्ट भी थे। मनोहर श्याम जोशी ने ‘दूरदर्शन के संवादहीन संवाददाता’ नामक लेख में इस व्यवस्था पर व्यंग्य कसा था – ‘अकलमंदी का तकाज़ा यह था कि दूरदर्शन में समाचार प्रसारण के लिए बिलकुल अलग व्यवस्था की जाय और उसे चलाने के लिए आकाशवाणी के समाचार प्रभाग और फिल्म प्रभाग के न्यूज़ रील डिवीज़न से अनुभवी कर्मचारी बुला लिए जाय। लेकिन अकलमंदी से दफ्तरशाही की दुश्मनी पुरानी है।’ उदारीकरण से पहले मीडिया ने दफ्तरशाही और सत्ता की ग़ुलामी कर अपने दिन काटे थे। लोकतंत्र की कसौटी बनने की क्षमता रखने वाले मीडिया जैसे संस्थान के लिए यह एक दुर्भाग्यपूर्ण समय था।
फिर समाचार चैनेलों के बूम का ज़माना आया, लेकिन इसके बाद जो हुआ वह पहले से भी अधिक दुखद था। धड़ल्ले से एक साथ कई नए समाचार चैनल खुलते चले गए। लेकिन इस गति से दर्शक नहीं बढ़े; शिक्षा और सामूहिक चिंतन के आभाव में बढ़ना संभव भी नहीं था। मीडिया चाहती तो इस बदलाव की अगुवाई कर सकती थी। लेकिन पूंजी और निवेशकों के दबाव में आकर मीडिया ने इस दौरान एक जघन्य अपराध किया जिसकी सज़ा हम आज तक भुगत रहे हैं, और शायद आने वाली नस्लें भी भुगतती रहेंगी। यह अपराध था मीडिया को ‘बोरिंग’ से ‘एंटरटेनिंग’ बनाना। जिन विषयों को बाकी चैनलों में फूहड़ या बेतुका मानकर नकार दिया जाता था, उन्हें समाचार चैनेल अपनाने लगे। मनोरंजन के नाम पर मीडिया ने जो भाषा अपनाई वह विस्फोट और संदेह पर टिकी हुई भाषा थी। मडिया की भाषा आज्ञाकारिता से भय की भाषा में परिवर्तित हो गई। जेएनयू के छात्रों के साथ जो हुआ वह मीडिया के एंटरटेनिंग बनने की इसी लालसा का परिणाम बनकर सामने आया। वर्ना तार्किकता और आदर्शवादिता पर टिके शिक्षक और छात्र समुदाय से टकराने की गलती व्यवस्था नहीं करती। केदारनाथ सिंह के शब्दों में यह समय ‘अंग्रेजों के ज़माने और आपातकाल से अधिक दुर्भाग्यपूर्ण’ था, और इसके लिए व्यवस्था से अधिक मीडिया ज़िम्मेदार थी।
मीडिया का सीधा प्रभाव सोशल मीडिया पर भी पड़ा है। फेसबुक और ट्विटर जैसे माध्यमों का भयंकर राजनीतिकरण हमारे प्रत्यक्ष है। दूसरे देशों में हम सोशल मीडिया पर विज्ञान, इतिहास, दर्शन, कला, संगीत, और सिनेमा पर चल रही बहसें पढ़ते सुनते हैं; लेकिन हिंदी समुदाय, और लगभग पूरे देश में लोग इन सार्वजनिक माध्यमों पर केवल राजनैतिक बहस करते नज़र आते हैं। एक समय था जब राजनैतिक बहस कुछ लोग करते थे। यह बौद्धिक वर्ग एक क्रिटिकल सोच रखने वाला वर्ग था, जिसने दूषित हो रही मीडिया का विरोध नहीं किया। यह इनकी बड़ी गलती थी कि वे चुपचाप समाचार चैनलों को देखना छोड़ किताबों, अखबारों, और पत्रिकाओं में डूबते चले गए। वहीं दूसरी तरफ उदारीकरण के दौर में तेज़ी से विकास की सीढ़ी चढ़ते एंटरटेनमेंट के भूखे दर्शकों ने अपना रिश्ता इन समाचार चैनलों से जोड़ लिया। एक दूसरे से मुग्ध इन्हीं दर्शकों का एक बड़ा हिस्सा आज सोशल मीडिया के माध्यमों पर सबसे अधिक असहिष्णु दीखता है। विषय बदलना, निजी प्रहार करना, चिल्लाना, डराना, धमकाना, गाली गलौज – सोशल मीडिया पर ये जायज़ ठहराए जाते हैं क्योंकि समाचार चैनलों पर यह आम बात है। अपनी कविता ‘संतुलन’ में मैंने लिखा है –
हमने खो दिये
वो शब्द
जिनमें अर्थ थे
ध्वनि, रस, गंध, रूप थे
शायद व्यर्थ थे ।
शब्द जिन्हें
कलम लिख न पाए
शब्द जो
सपने बुनते थे
हमने खोए चंद शब्द
और भरे अगिनत ग्रंथ
वो ग्रंथ
शायद सपनों से
डरते थे ।
अब मनोरंजन की भाषा के विकास और प्रस्थान को समझते हैं। मीडिया की तुलना में मनोरंजन की भाषा अधिक व्यापक और प्रभावशाली रही है। पुराने खेल, नुक्कड़, नाटकों से लेकर आज के लोकप्रिय फिल्मों, धारावाहिकों, क्रिकेट कमेंट्री, और यूट्यूब विडियो तक इस भाषा का वर्चास्व फैला हुआ है। हिंदी समुदाय का शायद ही कोई व्यक्ति मनोरंजन से अछूता रह पाया है। मीडिया की तरह यह भाषा सच बोलने का दावा नहीं करती। रोलां बार्थ के शब्दों में मिथकों की इस भाषा को हम मिथ्या जानकर भी अपनाते हैं, जैसे रंगमंच पर नायक की मृत्यु देख आंसू बहाते हों। मिथकों की यह भाषा हमारी सामूहिक चेतना का हिस्सा है। लोगों के निजी जीवन और एकांत से जुड़े होने के कारण इसमें करुणा और सामाजिक बुराइयों के खिलाफ विरोध के स्वर आज भी मौजूद हैं। मीडिया की तुलना में मनोरंजन की भाषा फिलहाल काफी भद्र और सहिष्णु है।
मनोरंजन के पक्ष ने हिंदी भाषा के क्षेत्र-विस्तार में काफी मदद की है। इन्टरनेट पर भी एक बढ़ता युवा वर्ग अब अंग्रेजी छोड़कर हिंदी में संवाद करने लगा हैं। इनकी संख्या बढ़ रही है। कुछ ऐसे भी हैं जो हिंदी को अंग्रेजी में टाइप कर काम चलाते हैं। केवल अंग्रेजी में हिंदी नहीं लिखी जाती, सोशल मीडिया और सूचना क्रांति के इस दौर में हिंदी में अंग्रेजी बोली भी जाती है। शहरों, कस्बों, स्कूल, कॉलेजों में हिंदी और अंग्रेज़ी की मिश्रित भाषा ने ज़ोर पकड़ा है। अंग्रेज़ी के दबाव में आने के बावजूद युवाओं में बढ़ रही इस भाषा-चेतना की प्रशंसा की जानी चाहिए। उनका तिरस्कार करने के बजाय उनके भाषा-प्रेम को नए तरीकों से प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। हमारी भाषा की उदार संस्कृति के यह अनुकूल भी है। यह अच्छी बात है कि हिंदी-अंग्रेजी की इस मिश्रित भाषा को मीडिया और साहित्य भी अपना रही है। भाषाओं में परस्पर आदान-प्रदान होना चाहिए। इसमें प्रदान पर पक्ष आगे चलकर दुरुस्त हो तो हिंदी के लिए यह वरदान साबित हो सकता है। हालाँकि हिंदी और अंग्रेजी के इस गठबंधन का विकसित रूप देखा जाना अभी बाकी है।
हिंदी के मनोरंजन के साधनों ने मिलकर हमारी भाषा के सांस्कृतिक पक्ष का ह्रास भी किया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि मनोरंजन के माध्यमों में मौजूद हिंदी का यह रूप अंग्रेजी जैसा सपाट है। यह हिंदी होकर भी मशीनी लगती है, जिसका उद्देश्य केवल मनोरंजन है, जिसकी कोई संस्कृति, कोई तीसरा आयाम नहीं है। इस सन्दर्भ में सुधीर रंजन सिंह ने ‘हिंदी समुदाय और राष्ट्रवाद’(2009) में लिखा है – ‘विजुअल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया सबसे अधिक खिलवाड़ भाषा से करती है। यह इसलिए भी कि उसका मूल माध्यम भाषा नहीं है। उसे अपनी माध्यम-प्रकृति के अनुकूल भाषा बनानी होती है। यह काम भाषा की सांस्कृतिक प्रकृति को मृत्युदंड देकर किया जाता है। हिंदी के साथ यह कुछ दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से हो रहा है। हिंदी को सिनेमा से दृश्य-माध्यम में पहले से देशव्यापी सफलता मिल चुकी थी। इसका सीधा लाभ टेलीविज़न को मिला। इसका सीधा नुक्सान हिंदी को उठाना पड़ा।’
यही कारण है कि भाषा के क्षेत्र-विस्तार से पहुंचे फायदों के बावजूद मनोरंजन के माध्यम से प्रसारित भाषा ने हमारी संस्कृति में फासीवाद को बढ़ावा दिया है। अंतोनियो ग्राम्शी ने संस्कृति के माध्यम से बढ़ते फासीवादी मूल्यों को जिन मापदंडों से तौला था, उनका इस्तेमाल हमारे आज के समाज पर किया जाना ज़रूरी है। टेलीविजन और सिनेमा की बदौलत हमारी संस्कृति में पितृसत्ता, मेरिटॉक्रेसी, अंधराष्ट्रवाद, अ-लगाव, सैन्यवाद, और लैंगिकवाद को बढ़ावा मिला है। नकली परदे की यह दुनिया हमेशा दो-तीन लोगों के इर्द गिर्द घूमती है। इस सुनहरे परदे पर जन के प्रति करुणा का भयंकर आभाव है। यहाँ ‘एंग्री यंग मैन’ का गुस्सा मार खाते अनगिनत लोगों की व्यथा से अधिक महत्वपूर्ण हैं। यह आत्मनिरति हमारे समय और समाज की कुछ ज़रूरी आवाजों के प्रति हमें बहरा बना देती हैं। ‘जैसे’ कविता में अरुण कमल कहते हैं –
इस तेज बहुत तेज चलती पृथ्वी के अंधड़ में
जैसे मैं बहुत सारी आवाजें नहीं सुन रहा हूँ
वैसे ही होंगे वे लोग भी
जो सुन नहीं पाते गोली चलने की आवाज ताबड़तोड़
और पूछते हैं – कहाँ है पृथ्वी पर चीख?
उदारीकरण के दौर में हिंदी के विकास में मीडिया और मनोरंजन का पक्ष मज़बूत हुआ है। जहाँ एक तरफ इन्होंने हमारी भाषा के विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, वहीं दूसरी तरफ इन्होंने मिलकर हिंदी के सांस्कृतिक पक्ष का ह्रास कर हमारी सोच और समझ को विकृत भी किया है। यही विकृति आज हमारे समाज में अ-लगाव, भ्रष्टाचार, और अंधराष्ट्रवाद को बढ़ा रही है।
अगर राष्ट्रवाद के उद्देश्य की चर्चा करें तो साहित्य की भाषा के पक्ष को ठीक से समझे बिना बात पूरी नहीं की जा सकती। हिंदी के शुरुवाती विकास में साहित्य का योगदान सर्वस्वीकृत है। हमारे साहित्य में करुणा और प्रेम प्रबल गुण रहे हैं। साहित्य की भाषा देखने की भाषा है, महसूस करने, सोचने, और सवाल पूछने की भाषा है। अपने विकास के समय हिंदी का ध्येय विभिन्न भाषाओं से जुड़े समूहों को आज़ादी के आन्दोलन के लिए संगठित करना था। साहित्य की बदौलत लोगों को एकजुट करने की यह प्रवृति हमारी भाषा में स्वतः रच बस गई थी। यह भाषा आज भी हमें जोड़ती ही है। इस सन्दर्भ में हिंदी एक राष्ट्रवादी भाषा ही है।
यहाँ राष्ट्र के बारे में यह समझना आवश्यक है कि वह कोई प्राकृतिक वस्तु नहीं है। राष्ट्र विभिन्न समुदायों को एक उदार और सुनहरे लक्ष्य से जोड़ने की सतत प्रक्रिया है। अंग्रेज़ों के शासनकाल में अगर विभिन्न समुदायों को एकजुट करने की कोई एक भाषा बन सकती थी तो वह हिंदी ही थी, लेकिन राष्ट्रभाषा के रूप में नहीं, बल्कि दो दूरस्थ गाँवों के बीच एक छोटी कच्ची सड़क के रूप में, जहाँ लोग मिलते-जुलते, और और एक दूसरे के सुख-दुख में शरीक होते। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। भारत के सैंसेक्स के आंकड़े भी हिंदी की राष्ट्रभाषा होने के तकाज़े की रक्षा नहीं करते। सिर्फ तीस प्रतिशत भारतीय जनता मानती है कि हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है। बीस अन्य भाषाओं को हिंदी मानकर इस संख्या को पचास प्रतिशत तक लाया जाता है। हालाँकि राष्ट्रभाषा का प्रश्न हमारे सन्दर्भ में अप्रासंगिक हो चुका है, लेकिन राष्ट्र को भाषा के तराजू से तोलना भी आज भी आवश्यक है।
भाषा का राष्ट्र के प्रति बड़ा कर्तव्य होता है। भाषाएँ राष्ट्र को जोड़ भी सकती है और उन्हें विखंडित करने का भी सामर्थ्य रखती हैं। इस सन्दर्भ में हिंदी और उर्दू भाषाओं के बीच के विवाद और उससे दोनों भाषाओं को पहुंची क्षति की पुनः याद दिलाने की इजाज़त चाहूँगा। हालाँकि यह विवाद पहले से ही चलता आया था, लेकिन हिंदी-उर्दू के बीच के अलगाव ने उन्नीसवीं शताब्दी में सबसे अधिक जोर पकड़ा। टीपू सुल्तान पर ब्रिटिश राज के विजय की पहली वर्षगाँठ का उत्सव मनाते हुए साल 1800 में कलकत्ता में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की गई जहाँ हिंदी और उर्दू के अलग-अलग विभाग बनाए गए थे। इस दौरान शिवप्रसाद सितारेहिन्द जैसे उर्दू के कई नुमाइंदे पीछे छूट गए थे, और नज़ीर अकबरवादी जैसे कवि, जो खड़ी बोली और उर्दू दोनों में पारंगत थे, न उर्दू के द्वारा अपनाया गए और न हिंदी के द्वारा।
फिर सन सत्तावन आया। डॉ। रामविलास शर्मा ने इस ऐतेहासिक क्रान्ति पर लिखा है – ‘अठारह सौ सत्तावन की धरती हिन्दुओं और मुसलामानों के खून से सींची गई है। जिस दिन यह विशाल हिंदी प्रदेश एक होकर नए स्वाधीन जनजीवन का निर्माण करेगा, उस दिन इसकी संस्कृति एशिया का मुख उज्जवल करेगी। किसानों और मजदूरों की एकता जो जनता के संयुक्त मोर्चे की मुख्य शक्ति है, वह दिन निकट लायेगी।’ सत्तावन को हमारी पहली कविता बतलाते हुए सुधीर रंजन सिंह ने लिखा है –
मैं कह सकता हूँ
अपनी इस ग़रीब हिंदी में
और इसकी तरफ़ से –
लिखी जाएगी जब तक देश में
ग़ुलामी की आदत के ख़िलाफ़ कविता
‘57 की याद उससे जुड़ी रहेगी।
सन सत्तावन के बाद के दशकों में हिंदी-उर्दू के बीच के संबंधों ने अधिक जटिल रूप लिया। जहाँ एक तरफ इस क्रान्ति की हिन्दू-मुस्लिम एकजुटता को मिसाल मानकर हिंदी और उर्दू साहित्य एक दूसरे को अपनाने की कोशिश करने लगे, वहीं भाषा में चल रहे विवादों का असर अब समाज पर अधिक गहरा दिखने लगा था। समय के साथ मामला बिगड़ता गया, जिसका खामियाजा हमें ‘47 के विभाजन के रूप में भुगतना पड़ा। हिंदी एक और उर्दू दो देशों की भाषा बनी। आगे चलकर ख़ुदको पूर्वी पकिस्तान पर थोपने की कोशिश करते हुए उर्दू के हाथ से एक और प्रांत छिन गया। बांग्लादेश की आज़ादी के आन्दोलन की मूल आवाज़ उर्दू के खिलाफ बंगाल की अपनी भाषा-चेतना रही। 21 फ़रवरी, 1952 की स्मृति बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल के नागरिक भाषा दिवस के रूप में आज भी मनाते हैं। ख़ुदको बलपूर्वक थोपने की गलती का खामियाजा हिंदी से अधिक उर्दू ने ही भुगता है।
आज़ादी के बाद के वर्षों में हमें विश्वास था कि विकास के साथ हमारे तमाम मतभेद ख़त्म हो जाएँगे और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा मिलेगा। इस मामले में हम लेनिनवादी विचारों से प्रेरित थे, हालाँकि लेनिन ने इस ध्येय को औद्योगीकरण के माध्यम से साधना चाहा था। लेकिन रूस की ही तरह भारत में भी ऐसा संभव नहीं हो सका। उदारीकरण के बाद साहित्य का पक्ष और भी कमज़ोर पड़ता गया और आगे चलकर मीडिया और मनोरंजन की भाषा हमारे भीतर बची-खुची उदारता का ह्रास करने लगी। करुणा, उदारता, और विविधता के अभाव के इस दौर में राष्ट्रवाद की जो नई अवधारणा विकसित हुई वह हिटलर और मुसोलिनी के अंधराष्ट्रवाद से मिलती जुलती है। जो फासीवादी राजनैतिक संगठन पहले हिन्दू और गैर-हिन्दू के बीच पृथिकरण की चेतना पर टिके थे, वे सत्ता में बैठ राष्ट्रवाद और राष्ट्रद्रोह पर प्रजा को विभाजित करने की कोशिश में जुट गए हैं। रेशनलिस्टों की हत्या, साहित्यकारों और छात्रों का दमन इसी मुहीम का हिस्सा है।
मौजूदा स्थितियों का समाधान फिलहाल दिखाई नहीं देता, लेकिन अपनी भाषा की तरफ से मैं इतना ज़रूर कह सकता हूँ कि ऐसे समय में जहाँ एक तरफ मीडिया और मनोरंजन के साधनों को अपना-अपना उद्देश्य और मर्यादा तय करने की ज़रुरत है, वहीं दूसरी तरफ साहित्य को भी आगे आने की ज़रुरत है। साहित्य ने शुरू से हिंदी समुदाय को एकजुट करने का काम किया है। हमारी भाषा में यह क्षमता रच-बस गई है। दुर्भाग्यवश साहित्य का पक्ष उदारीकरण के बाद कुछ कमज़ोर हुआ है। मनोरंजन की भाषा ने उसे सपाट, संस्कृतिहीन, और मशीनी बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। दूसरी तरफ मीडिया के बढ़ते प्रकोप ने साहित्य की विश्वसनीयता और असर, दोनों पर घना प्रहार किया है।
कुंवर नारायण ने अपने लेख ‘सामाजिक यथार्थ और कविता का आत्मसंघर्ष’ में लिखा है – ‘हमारे समाज और दुनिया को हमारे बहुत समीप लाने में मीडिया के तंत्र का बहुत बड़ा हाथ है, लेकिन यह भी इतना ही सही है कि मीडिया द्वारा आज भाषा और यथार्थ का सबसे अधिक प्रदुषण और विकृतीकरण भी हो रहा है। जो तथ्य मीडिया द्वारा हम तक पहुँचते हैं वे अगर अध्सच्चे या ग़लत या अतिरंजित होते हैं तो ज़ाहिर है कि उन पर कविता या साहित्य की प्रतिक्रिया का महत्व भी संदिग्ध, और इसीलिए गौण या नगण्य होगा। दूसरी बात, मीडिया के सशक्त और सक्षम तंत्र को वेधकर कविता के लिए जनमानस को प्रभावित करना बहुत मुश्किल होगा जिसकी भाषा और चिंतन को मीडिया की प्रणाली एक ज़्यादा बड़े पैमाने पर अपनी तरह प्रभावित कर चुकी होती है या करती रहती है।’
हमारी भाषा के सांस्कृतिक पक्ष की रक्षा करने का कार्य कठिन है, मगर असंभव कतई नहीं है। कबीर के ‘एक बूंद एकै मल मूत्र, एक चम् एक गूदा / एक जोति थैं सब उत्पन्ना, कौन बाम्हन कौन सूदा‘ से लेकर अदम गोंडवी की ‘आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को / मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको’ तक साहित्य का पक्ष दबे कुचले हुओं की आवाज़ बनकर हमारी सामूहिक चेतना में गूंजता रहा है। साहित्य जन और समाज की नब्ज़ पहचानती है।
साहित्य विचारों के उन्माद की भाषा है; प्रेम की भाषा है। हमारी भाषा का निर्माण तर्कशक्ति और मर्यादाओं पर टिके राष्ट्र और सामूहिक चेतना को लक्ष्य बनाकर किया गया था। हमारी नई और उर्वर भाषा का वह सपना अभी अधूरा है जहाँ एक ऐसे समाज का निर्माण किया जाना था जहाँ कोई भी व्यक्ति भयभीत, हताश, या तिरस्कृत महसूस न करे। भाषा में, और परिणामस्वरूप हमारे विचारों में, हमारी खोई हुई उदारता को वापस लाने का दायित्व साहित्य को उठाना है। आने वाले समय में यह और भी कठिन होता जाएगा। ऐसे में लेखकों, पाठकों, और भाषा-प्रेमियों को एक होकर काम करने की ज़रुरत है।