एक लेखक की मौत

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लेखक पेरूमल मुरुगन के खुदको मृत घोषित करने के एक वर्ष के भीतर पंसारे और कलबुर्गी जैसे रेशनलिस्ट हमारे देश में बढ़ रही फासिस्ट ताकतों के हाथ मारे गए। विरोध का दमन हमारे देश में कई सालों से होता आया है। वरिष्ठ पत्रकार पी साईनाथ के अनुसार ग्रामीण भारत में अपने हक के आवाज़ उठाना अक्सर आपको मुसीबत में डाल सकता है। ज़मीन छिनने पर अगर किसान आवाज़ उठाए, तो उसे माओबादी करार कुचल दिया जाता है। इसी क्रूर दोषारोपण का एक नया रूप हम इन दिनों शहरों में देख रहे हैं, जहाँ सत्ता पक्ष और उनके समर्थक हर प्रश्न पूछने वाले को देशद्रोही करार देने को तुली है। बहरहाल, लेखक मुरुगन के सन्दर्भ में पिछले साल कुछ लिखा था जो इंडियारी का पहला सम्पादकीय भी था। कुछ संशोधनों के साथ इसे प्रिय पाठकों के साथ दोबारा साझा कर रहा हूँ।


‘लेखक पेरुमल मुरुगन मर गया’ – प्रसिद्द तमिल लेखक ने अपने फेसबुक पेज पर घोषणा की। बढ़ते फासीवाद और सत्तावाद के मुंह पर एक निराश लेखक ने अपना मृत्युपत्र फेंक कर मारा। बेहद शर्मनाक! लेखक मर गया। लोग पूछने लगे – अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता क्या चीज़ है? अच्छा! कुछ भी लिख सकते हैं? किसी भी धर्म, समुदाय के बारे में? मग़र किसी को बुरा लग गया तो?

लेखक मार दिया जाएगा।

तो बात कुछ यूँ बनी कि अभियव्यक्ति की स्वतंत्रता सिर्फ वहीं तक सीमित है जहाँ तक लेखक ज़िंदा रह सकता है। धूमिल के शब्दों में कहें तो –

“कुछ इस तरह कि चीजों की शालीनता बनी रहे
कुछ इस तरह कि…
कांख भी ढकी रहे
और विरोध में उठे हुए हाथ की…
मुठ्ठी भी तनी रहे…”

पेरुमल मुरुगन तमिल के सबसे प्रतिभाशाली साहित्यकारों में गिने जाते हैं। जिस उपन्यास पर वर्तमान में विवाद हुआ, वह २०१० में ही ‘मदोरुबगन’ नाम से प्रकाशित हो चुका था। उपन्यास का अंग्रेज़ी अनुवाद ‘वन पार्ट वुमन’ के नाम से २०१३ में पेंग्विन से छप कर आया। इस उपन्यास को लिखने और इससे जुड़े शोध के लिए मुरुगन को बैंगलोर स्थित ‘इंडिया फाउंडेशन ऑफ़ द आर्ट्स’ से अनुदान मिला था। मुरुगन ने इस उपन्यास पर काम करते हुए कोंगूनाडु स्थित तिरुचेंगोड़ु के लोक जीवन का अध्ययन किया। शोध के दौरान मुरुगन वहां के कुछ वृद्धों से मिले जो ख़ुदको ‘सामी-पिल्लै’ (देव-संतान) और ‘अर्धनारी’ के नाम से सम्बोधित करते हैं। जब मुरुगन ने इनके इतिहास पर रिसर्च किया तो पाया कि लगभग पांच दशक पहले तक तिरुचेंगोड़ु के अर्धनारीश्वर मंदिर में एक विचित्र उत्सव होता था। हर साल के एक दिन, कोई भी संतानहीन स्त्री अपने दांपत्य को लांघकर वहां के उत्सव में मौजूद किसी भी पुरुष के साथ दैहिक सम्बन्ध स्थापित कर सकती थी। इससे प्राप्त बच्चे को देव संतान मानकर स्त्री और उसका परिवार सहर्ष स्वीकार लेते थे। इसी उत्सव को आधार बनाकर, मुरुगन ने इस उपन्यास में आज़ादी के बाद की सामाजिक स्थितियों, यहाँ के ग्राम्य जीवन, मान्यताओं, स्त्री पुरुष संबंधों, अंधविश्वासों और मिथकों को बेहद संजीदगी और संवेदनशीलता के साथ दर्ज़ किया है।

उपन्यास के केंद्र में एक निस्संतान दम्पति है – काली और पोन्ना – जो एक दूसरे से बेहद प्यार करते हैं। मग़र बारह साल तक बेऔलाद रहने की वजह से समाज में काली को नपुंसक और पोन्ना को बाँझ करार दिया जाता है। इस श्राप से मुक्ति पाने के लिए पोन्ना अनगिनत मंदिर-मठों में यज्ञ-अनुष्ठान करती है। काली को उसका परिवार सुझाव देता है कि वह दूसरी शादी कर ले, जिससे पोन्ना के परिवार को ऐतराज़ नहीं है। मग़र पोन्ना का साथ छोड़ना काली को स्वीकार नहीं। काली को इस बात का भी डर है कि दूसरी शादी करने के बावजूद अगर उसे बच्चा नहीं हुआ, तो खिल्ली उड़ेगी। इनके एक काका को छोड़कर काली और पोन्ना से कोई हमदर्दी नहीं रखता। इन अंतर्द्वंद्वों का एक सुखी-संतुष्ट वैवाहिक जीवन पर किस तरह प्रभाव पड़ता है, और कैसे काली-पोन्ना निष्कपट भाव से इनसे जूझते हैं – मुरुगन ने इस कथानक के माध्यम से पश्चिमी तमिल नाडु के वन्य प्रदेश का सामाजिक जीवन, यहाँ की लोकसंस्कृति, आस्थाओं, और आदिवासी समाज को बेहद मार्मिक ढंग से कागज़ पर उकेरा है। मुरुगन लिखते हैं –

‘हर महीने अपने मासिक धर्म के दौरान [पोन्ना] खलिहान में बैठ कर आंसू बहाती। उस [काली] की गोद में मुंह छिपा कर रोना पोन्ना को दिलासा देता था। वह उसके बालों को संवारते हुए कहता, ‘जाने दो। अबतक हमें आदत पड़ जानी चाहिए।’ मग़र पोन्ना इसी उम्मीद में थी कि उनके हालात सुधर जाएंगे। कभी कभी उसे रोता देख काली भी रो पड़ता। वे अपनी किस्मत को कोसते हुए साथ आंसू बहाते। न चाहते हुए भी काली को मन ही मन इस बात की ख़ुशी होती कि पोन्ना का मासिक धर्म जारी है। इस तरह उसे विश्वास रहता कि पोन्ना उसे धोखा नहीं दे रही।’

तमाम कोशिशों के बावजूद जब परिवार के लोग काली और पोन्ना को अलग नहीं कर पाते, तब पोन्ना का भाई उसे अर्धनारीश्वर मंदिर के उत्सव में भाग लेने का सुझाव देता है। वह पोन्ना से झूठ बोलता है कि काली ने उसे इस उत्सव का हिस्सा बनने की अनुमति दे दी है। पोन्ना के माँ-बाप उसे उत्सव में ले जाकर छोड़ देते हैं। यह देव-संभोग उपन्यास का सबसे सार्थक अध्याय है। पोन्ना कभी ‘देवता’ में काली को देखती, तो कभी इस बात से संतुष्ट होती कि अब उसे कोई नहीं चिढ़ा पायेगा। परिचित और अज्ञात के बीच का यह द्वंद्व, प्रतिबद्धता और मुक्ति का यह विलक्षण संग्राम है। मुरुगन के शब्दों में कभी जादुई यथार्थवाद के दर्शन होते हैं तो कभी देह, प्रेम, परम्पराओं और संवेदनाओं के स्तर पर चल रही प्रतिपक्षता का मर्म उभरकर सामने आता है। वे लिखते हैं –

‘[पोन्ना को] महसूस हुआ कि कोई उसके कान के नरम हिस्से को सहला रहा है, उसने पीछे हटकर माथे का पसीना पोंछा। उसे लगने लगा की कोई उसकी गर्दन और पीठ पर गर्म सांसें छोड़ रहा है। वह पीछे मुड़ी, और उनकी आँखें टकराई। उसे मालूम था कि इन्ही आँखों के स्पर्श से वह विचलित हो रही थी। उन आँखों में गज़ब की चमक थी, मानो कई मशाल एक साथ जल उठे हों। उसकी धोती का पिछला हिस्सा उसकी छाती पर गिरा हुआ था, पोन्ना के लिए वह बिलकुल अनजान था। उसके बाल बिखरे हुए थे, और ऐसा लगता था कि उसने अभी तक दाढ़ी बनाना शुरू भी नहीं किया है। पोन्ना जान गयी थी कि यही उसका देव है।’

जहाँ एक तरफ़ पोन्ना यह सब काली और उसके परिवार की ख़ुशी के लिए कर रही होती है, काली को इस बात से अनजान रखा जाता है। जब उसे इन घटनाओं का पता चलता है, वह सोचता है कि पोन्ना ने उसे धोखा दिया है। एक दूसरे के लिए निष्ठा और त्यागभाव रखने के बावजूद, सामाजिक प्रतिबद्धताओं में जकड़कर एक सीधा-सादा भरा-पूरा परिवार बर्बाद हो जाता है।

किसी भी अच्छे लेखन की तरह मुरुगन के उपन्यास से भी कुछ लोगों का मतभेद होना स्वाभाविक है। मग़र क्या लेखन से असहमति को लेखक की मौत का फ़रमान बना देना एक सभ्य समाज का गुण है? मुरुगन की तरह ही मशहूर उपन्यासकार सलमान रुश्दी भी लगभग एक दशक के लिए मार दिए गए थे। अपने उपन्यास ‘द सेटेनिक वर्सेज़’ के लिए उन्हें मौत की कई धमकियाँ मिली। ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला रूहोल्लाह खोमैनी के जारी किए गए फतवे का सामना करना पड़ा। एक दशक तक भूमिगत रहने के पश्चात उन्होंने साहित्य में वापसी की। अभी कुछ साल पहले ब्लॉगर रेफ बिदवई को भी इस्लाम का अपमान करने के जुर्म में सऊदी अरब में सात साल कैद और छह सौ कोड़ों की सज़ा सुनाई गयी थी, जिसे कुछ दिनों पहले बढ़ाकर हज़ार कोड़े और दस साल कैद कर दिया गया। इस्लामी प्रांतों में फैली धर्मान्धता के ख़िलाफ़ रेफ बिदवई ने अपने एक लेख में लिखा था-

‘धर्म की आधारशिला पर खड़े राष्ट्रों में प्रजा को श्रद्धा और डर का कैदी बना दिया जाता है।‘

इसमें कोई शंका नहीं कि धार्मिक उग्रवाद और राजनैतिक अक्षमता में गहरा सम्बन्ध है। इस्लामी कट्टरवाद भी विफल राष्ट्रों (पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, सीरिया, सोमालिया) और एकतंत्र शासनों (सऊदी अरब, क़तार, कुवैत, जॉर्डन, यमन, ईरान) में व्याप्त है। ईरान को छोड़कर इनमें से अधिकाँश देशों में तानाशाही की मदद अमरीका अपनी निधि और अस्त्रों के ज़रिए करता रहा है। वहीं धर्मनिरपेक्ष लोकतान्त्रिक देशों (तुर्की, मलेशिया, इंडोनेशिया, बांग्लादेश) में धार्मिक कट्टरपंथ सिमित है, जहाँ अलग अलग धर्म के लोग मिलजुलकर रहते हैं। इन्हीं देशों में बुद्धिजीवियों और वामपंथ को आसरा और समर्थन दोनों प्राप्त होता है।

पश्चिम में भी उन्हीं देशों की आवाम सबसे ज़्यादा सुखी पाई गयी है जहाँ धार्मिक प्रवृतियों को नियंत्रण में रखा गया है। चर्च और स्टेट में अलगाव है। यूरोबैरोमीटर के अनुसार स्वीडन में केवल १८%, नॉर्वे में २२%, फ्रांस में २७% और डेनमार्क में २८% लोग ही धार्मिक हैं। स्कैंडेनेविया और पश्चिमी यूरोप के अलावा कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अमरीका के कुछ देशों में भी धार्मिक ताक़तों को समाज और राजनीती से लगभग अलग कर दिया गया है। इन देशों में अमीरों और कॉर्पोरेटस पर भारी टैक्स लागू कर सरकारी संस्थान शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और गरीबों के उत्थान में कार्यरत हैं। अमरीका में भी देखा गया है कि दस में से नौ सबसे धार्मिक राज्य देश के दस सबसे गरीब राज्यों में से हैं। विकसित देशों में लेखक व कलाकार समुदाय खुलकर पोप और ईसाई धर्म की आलोचना करने में सक्षम है। यहाँ धार्मिक सहिष्णुता और उदारता अधिक है। फ्रांसिस जैसे पोप हैं जो धार्मिक अवधारणाओं से ऊपर उठकर समलैंगिकों के पक्ष में बात करने की हिम्मत रखते हैं। ईश्वर में विश्वास करने वालों के मन में भी क्रिटिकल थिंकिंग की जगह है।

यूरोप ने भी दो भयंकर विश्व युद्धों से गुज़रकर ही अपना सबक सीखा है। वहां फैली सामुदायिकता, धर्मान्धता और हिंसक प्रवृत्ति ने ॲन्तोनिओ ग्राम्सी, वॉल्टर बेंजामिन समेत कई लेखक, कवियों और विचारकों की जान ली। सत्ता और साहित्य की इस लड़ाई में बर्तोल्त ब्रेष्ट के नाटकों को भी जर्मनी की बढ़ती सांप्रदायिक ताक़तों का सामना करना पड़ा। किताब जलाये गए, नाटकों के मंचन का विरोध हुआ। उनके नाटक ‘द थ्रीपेन्नी ओपेरा’ (१९२८) में उन्होंने पूँजीवाद और धर्मान्धता के पारस्परिक संबंधों पर कड़ा कटाक्ष साधा। नाज़ी जर्मनी से निर्वासित किये जाने के बाद उन्होंने अपने नाटक ‘द लाइफ ऑफ़ गलेलिओ’ (१९३९) के माध्यम से दिखाया कि किस तरह वैज्ञानिक चेतना और मानव विकास का विरोध धर्म के नाम पर किया जाता है। इसी साल लिखे गए अपने प्रसिद्द नाटक ‘मदर करेज एंड हर चिल्ड्रन’ में ब्रेष्ट ने लिखा –

‘यहाँ एक अच्छी जंग छिड़नी चाहिए। इंसान कितने दिनों तक इस मदांध शान्ति में जी पायेगा? जानते हो शान्ति की सबसे बड़ी कमज़ोरी क्या है? इसे किसी संगठन की ज़रुरत नहीं पड़ती।’

धार्मिक कट्टरवाद को पीछे छोड़ने के बावजूद, मौजूदा हालातों में भारत और कई इस्लामी राष्ट्रों की तरह यूरोप भी रूढ़िवाद से पूरी तरह अछूता नहीं है। ‘शर्ली एब्दो’ पर हुआ बर्बर हमला और उसका मूर्खतापूर्ण प्रतिगमन इस दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य को प्रमाणित करता है। अगर इस फ्रेंच व्यंग्य साप्ताहिक के कार्टूनिस्टों की निर्मम हत्या जघन्य अपराध है, तो इसकी प्रतिक्रिया में फ्रांस में रहने वाले मुसलामानों पर हो रहे हमले भी उतने ही अन्यायपूर्ण है। हिंसा का जवाब हिंसा से देना हिंसकों को बढ़ावा देना है। इससे इस्लामी कट्टरपंथियों को ख़ुदको सही साबित करने का मौक़ा मिलेगा और उनके दुर्विचारों को जनता का समर्थन भी। यह एक तकलीफ़देह स्थिति पैदा कर सकती है।

लेख, उपन्यास अथवा कार्टूनों से असहमति होने में कोई नुक्सान नहीं। सर्वस्वीकृत कला ख़राब कला का दूसरा नाम है। लेखक को उसके लेखन से अलग देख पाना ज़रूरी है। १९६७ में रोलां बार्थ ने अपने महत्वपूर्ण लेख ‘डेथ ऑफ़ एन ऑथर’ में भी इसी बात पर ज़ोर दिया था। कला से अस्वीकृति होने पर कलाकार पर हिंसक होना अथवा उसे मार दिया जाना समाज का वीभत्स रूप है, जिसका राजनैतिक असमर्थता और सामाजिक विकलांगता से सीधा सम्बन्ध है। भारत की राजनैतिक ताक़तें अक्सर इस बढ़ते फासीवाद को उचित सिद्ध करने के लिए इस्लामी राष्ट्रों से हमारी तुलना कर बरी होने की कोशिश करते हैं। लेखक पेरुमल मुरुगन के सन्दर्भ में मैंने कइयों को कहते सुना है – ‘जाओ जाकर सऊदी में ऐसा लिख कर दिखाओ!’ इस्लामी कट्टरपंथ हमारी सहिष्णुता का मापदंड नहीं है। दो गलत मिलकर सही नहीं हो सकते।

पेरुमल मुरुगन की हताशा हमारी सामूहिक विफलता को दर्शाती है। महाभारत जैसे धर्मशास्त्र को जन्म देने वाले देश में ऐतहासिक दृष्टिकोण से अर्थपूर्ण, कोंगूनाडु की मिट्टी, जंगल, जीवन और समाज से सरोकार रखते इस उपन्यास के लेखक की यह ‘मौत’ दुखद है। संकीर्णता और रूढ़िवाद से लड़ते हमारे समाज को यह दुर्भाग्यपूर्ण प्रसंग कई सौ साल पीछे धकेल देता है।

इंडियारी से साभार

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