राजकमल चौधरी ने ‘मुक्ति-प्रसंग’ के बारे में लिखा है – ‘मैंने अनुभव किया है, स्वयं को और अपने अहं को मुक्त किया जा सकता है।… इस अनुभव के साथ ही, दो समानधर्मा शब्द – जिजीविषा और मुमुक्षा – इस कविता के मूलगत कारण है।’ चीनी कवि शी लिजी की कविताओं को पढ़कर भी कुछ ऐसा ही महसूस हुआ। लेकिन यह कवि अस्पताल नहीं कारखाने में मर रहा है, जिसकी कविताएँ असेंबली लाइन के शोर और शयनागारों के सन्नाटे को चुपचाप समेटतीं हैं।
शी लिजी (Xu Lizhi) की कविताओं से मैं तब रूबरू हुआ जब मैंने कवि की ख़ुदकुशी की ख़बर पढ़ी। वह चौबीस साल का था, और इलेक्ट्रॉनिक्स का निर्माण करने वाली दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी फॉक्सकॉन के लिए चीन के शेनज़ेन शहर में मज़दूरी करता था। ज़ाहिर है, चीन की वर्तमान व्यवस्था में न कवि होना निरापद है, और न ही प्रवासी मज़दूर होना।
शी लिजी की कविताओं का विशेष गुण इनकी संरचना, इनका टेक्सचर है। इन कविताओं में इंडस्ट्रियल रूपक और शब्दों का भरपूर इस्तेमाल किया गया है। कवि कभी लोहे की तरह खड़ा नज़र आता है, कभी पेंच की तरह ज़मीन पर आ गिरता है। अपने पूर्वजों की ज़मीन पर कवि के गले से फूट कर फैलने वाली प्रतिरोध, हताशा और उम्मीद के बीच का द्वंद्व प्रकट करतीं यह कविताएँ बेरोज़गारी, तनख़्वाह और ओवरटाइम से जूझती चीन की युवा पीढ़ी की व्यथा और संघर्षों से सरोकार रखतीं हैं। ये दिखलातीं हैं कि किस तरह चीन की युवा अपने सपनों और जिजीविषा को हाशिये पर रख वहां व्याप्त मुनाफाखोर व्यवस्था का शिकार होती चली जा रही है।
अँधेरे और तंगी में सिमटी हुई इन कविताओं का कवि कभी युवावस्था के आख़िरी कब्रिस्तान की रखवाली करता है, तो कभी दस वर्ग मीटर के कमरे से निकलता हुआ अपने ताबूत से बाहर आता दिखलाई पड़ता है। शी लिजी की कविताओं में एक तरफ पुरानी स्मृतियों से प्रकृति, गांव और गांव के बुज़ुर्ग चमक उठते हैं। वहीं दूसरी तरफ़ मौजूदा हालातों पर लिखी गयी कविताओं में गज़ब का विषाद और अकेलापन दिखता है।
१८४३ में कार्ल मार्क्स ने लिखा था कि आधुनिक उद्योग में लोग किस तरह अपने काम से, प्रकृति से, एक दूसरे से, और अपने आप से अलहदा होते चले जाएंगे। शी लिजी की कविताएँ इसी विरक्ति से जूझतीं हैं। मशीनों के शोर, अलमुनियम के स्वाद, और ग्रीज़ की गंध के बीच इंसान को महसूस करने की कोशिश, और इससे जुड़ी निराशा, दोनों ही रूपक इन कविताओं में बार-बार उभरकर सामने आतीं हैं। यह द्वंद्व शी लिजी की आख़िरी कविता पर आकर खत्म होती है, जहाँ वह बेहद मार्मिक शब्दों में अपने हालातों से हार मान लेता है। यह कविता, ‘मेरी मृत्युशय्या पर’, कवि का सुसाइड नोट भी है। वह लिखता है –
चाहता हूँ दोबारा सागर से मिलूँ, आंसुओं की विशालता को आधी ज़िन्दी से देखने की ख़्वाहिश है
चाहता हूँ एक और पर्वत की चढ़ाई करूँ, बुलाना चाहता हूँ उस आत्मा को जो कहीं खो गयी
छूना चाहता हूँ आकाश, उस हलकी नीलिमा को स्पर्श करना चाहता हूँ
मग़र जानता हूँ कुछ कर नहीं पाऊँगा, तो चला जा रहा हूँ दुनिया छोड़
जिन्होंने मेरे बारे में सुना है
उन्हें हैरत नहीं होंगी मेरे जाने पर
तुम भी आहें मत भरना, दुख मत करना
मैं जब आया था तब ठीक था, जब जा रहा हूँ ठीक हूँ।
मैंने लोहे का चाँद निगल लिया
मैंने लोहे का चाँद निगल लिया
वे इसे कील कहते हैं
मैंने इस औद्योगिक नाले को
इन बेरोज़गारी के दस्तावेज़ों को निगल लिया
मशीनों की बंदगी करते युवा समय से पहले मरते हैं
मैंने शोर शराबे और बेबसी को निगल लिया
मैंने पैदल पुलों को, ज़ंग लगी ज़िन्दगी को निगल लिया
बस अब और नहीं निगल सकता
जो निगला है वो अब मेरे गले से फूट कर
मेरे पूर्वजों की ज़मीन फ़ैल रहा है
एक शर्मनाक कविता के रूप में।
खड़े खड़े आँख लग गयी
मेरे आँखों के सामने रखा कागज़ फ़ीका पड़ रहा है
लोहे की कलम से जिस पर तराश रहा हूँ मैं
मेहनतकश शब्द
कारखाना, असेंबली लाइन, मशीन, ओवरटाइम, तनख़्वाह
इन्होंने सिखाया है मुझे ग़ुलाम बने रहना
मैं नहीं जानता चीख़ क्या, बग़ावत क्या
शिकायत, आरोप-प्रत्यारोप क्या
बस चुप्पी साधे सहना जानता हूँ
जब पहली बार यहाँ आया
हर महीने की दस तारीख़ की उम्मीद में
देर से ही सही, तसल्ली की तरह तनख़्वाह मिलती थी
इस उम्मीद के लिए मैंने किनारों का, शब्दों का साथ छोड़ा
आराम ठुकराया, बीमारियां ठुकरायीं, छुट्टियां ठुकरायीं
देर से जाना, जल्दी लौटना ठुकराया
असेंबली लाइन के सामने लोहे की तरह खड़ा रहा, हाथ जैसे किसी उड़ान में तने हुए
कितने दिन, और कितनी रातें
मैं – बस यूँ ही – खड़े खड़े सोया?
एक पेंच ज़मीन पर गिरा
एक पेंच ज़मीन पर गिरा
इस अँधेरी रात के ओवरटाइम में
सीधे गोता लगाता, धीरे से खनकता
इस से किसी का ध्यान नहीं टूटेगा
पिछली बार की तरह
जब ऐसी ही सुनसान रात को
किसी ने ज़मीन में डुबकी लगाई थी।
आख़िरी कब्रिस्तान
मशीन भी अलविदा कह रहा है
बंद वर्कशॉप में जम रहा है बीमार लोहा
और मज़दूरी ढकती जा रही है पर्दों के पीछे
उस प्रेम की तरह जिसे जवान मज़दूर अपने दिल में दबाये रखता है
इज़हार का वक़्त नहीं मिलता, उमंगें मिल जातीं मिट्टी में
उनके पेट लोहे के बने हैं
तेज़ाब से भरे हुए, सल्फ्यूरिक और नाइट्रिक
उद्योग उनके आंसू छीन रहा है गिरने से पहले ही
समय बहता जा रहा है, कुहरा निगल रहा है चेहरों को
उत्पाद का वज़न इनकी उम्र से कहीं अधिक, उदासी दिन-रात ओवरटाइम करती हुई
काम ख़त्म होने से पहले चक्कर खाकर गिर रही है
इस उछाल में छिल रही है चमड़ियां
और परत चढ़ती चली जा रही है अलमुनियम के मिश्रातु की
कुछ सह रहे हैं, जो बचे हैं बीमार होकर निकाले जा रहे हैं
इन सभी के बीच ऊंघता हुआ मैं
कर रहा हूँ रखवाली
युवावस्था के आख़िरी कब्रिस्तान की।
किराये का कमरा
दस वर्ग मीटर की एक जगह है
तंग और उदास, जहाँ धूप नहीं पहुँचती
यहाँ मैं खाता हूँ, सोता हूँ, पखाना करता हूँ और सोचता हूँ
खांसता हूँ, सिरदर्द सहता हूँ, बूढ़ा होता हूँ, बीमार पड़ता हूँ, मग़र मर नहीं पाता
एक धुंधली पीली रौशनी के नीचे बैठा मैं भावशून्य होकर देखता हूँ, बेवकूफों की तरह हँसता हूँ
इस जगह के चक्कर काटता, गुनगुनाता, पढ़ता, कविताएँ लिखता हूँ
और हर बार जब मैं खिड़की या इस जर्जर दरवाज़े से झांकता हूँ
लगता है अपने ताबूत से निकल रहा है
एक मरा हुआ आदमी।
भविष्यवाणी जैसा कुछ
गांव के बुज़ुर्ग कहते हैं
मैं अपने जवान दादा जैसा दिखता हूँ
मैं नहीं जानता
मग़र उन्हें बार-बार सुनकर
विश्वास होने लगा है
कि मेरे दादा से मिलते हैं
मेरे चहरे के हाव भाव
मिजाज़, मेरी आदतें
मानों मैं और वे एक ही गर्भ से जमने हों
उन्हें लोग ‘बांस का खम्भा’ बुलाते थे
मुझे ‘कपड़ों का हैंगर’ बुलाते हैं
वे अंतर्मुखी थे, अपनी भावनाओं को छुपाते
मैं थोड़ा चापलूस किस्म का इंसान हूँ
वे पहेलियाँ सुलझाते थे
मुझे पूर्वाभास पसंद है
१९४३ के पतझड़ में जापानी हैवानों ने हमला किया
और दादाजी को ज़िंदा जला दिया
वे तेईस साल के थे।
इस साल मैं हो रहा हूँ
तेईस का।
लड़ाई
लोग कहते हैं
मैं बहुत कम बोलता हूँ
इस बात से इंकार नहीं करूँगा
मग़र सच्चाई यह है
मैं बोलूं या न बोलूं
इस समाज से
लड़ता रहूँगा।
मेरी ज़िन्दगी का सफर अभी बाकी है
अपेक्षा नहीं थी ऐसी
मेरी ज़िन्दगी का सफर
अभी बाकी है
मगर ठिठका सा है रास्ते में कहीं
तूफ़ान पहले भी आते थे
मग़र पहले कभी
इतने तेज़
इतने घातक होकर नहीं आये
लगातार संघर्ष कर रहा हूँ
मगर सब निरर्थक है
मैं चाहता हूँ खड़ा रहना
मग़र पैर साथ नहीं देते
पेट साथ नहीं देता
मेरे शरीर की तमाम हड्डियां साथ नहीं देती
तो बस लेटा हुआ हूँ
यहाँ इस अँधेरे के बीचोंबीच, भेजता हुआ
अपनी व्यथा के पैग़ाम, बार बार लगातार
और सुन रहा हूँ सिर्फ
निराशा की प्रतिध्वनि।
शी लिजी की ख़ुदकुशी की ख़बर सुनकर उसके सहकर्मी ज़्हौ कीज़ाओ ने लिखा –
हर खोयी हुई ज़िन्दगी
मेरी एक और मौत है
एक नए पेंच का ढीला होना
एक और प्रवासी मज़दूर का गिरना है
तुम मेरी जगह मरते हो
और मैं लिखता हूँ तुम्हारे बदले
और इसी तरह, कसता जाता हूँ इन ढीले पड़े पेंच को
आज हमारे देश का पैंसठवाँ जन्मदिन है
मुझे उम्मीद है तुम खुशियां मनाओगे
यहाँ एक चौबीस साल का लड़का धूसर रंग की तस्वीर से मुस्कुरा रहा है
पतझड़ की हवा और पतझड़ की बारिश में
एक सफ़ेद-बालों वाला पिता, तुम्हारी राख एक कलश में लिए, लौट रहा है घर की तरफ।
इन कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद पहले लिब्कॉम वेबसाइट पर प्रकाशित हुआ। तत्पश्चात, लंदन रिव्यु ऑफ़ बुक्स, चाइना लेबर बुलेटिन, पोएट्री फाउंडेशन और वाशिंगटन पोस्ट ने शी लिजी की मार्मिक कविताओं को दुनिया के सामने प्रत्यक्ष किया। प्रस्तुत कविताओं का हिंदी अनुवाद अंग्रेजी से किया गया है।
अनुवाद एवं टिपण्णी – सौरभ राय / वसुधा 96 से साभार