दृश्य में दर्शन की तलाश : कोबायाशी इस्सा के हाइकू

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कोबायाशी इस्सा (1763 – 1828), जिन्हें इस्सा के नाम से भी जाना जाता है, जापानी हाइकू के चार स्तम्भों में गिने जाते हैं, जिनमें इनके अलावा मात्सुओ बाशो, योसा बुसोन और मासाओका शिकि भी शामिल हैं। जापान में इस्सा हाइकू के जन्मदाता माने जाने वाले बाशो जितने ही लोकप्रिय हैं। बाशो से एक शताब्दी बाद जन्मे इस्सा को हाइकू की रूढ़िवादी प्रथा का विधर्मी माना गया है। जहाँ बाशो ने अपने रहस्यवाद और बुसोन ने अपने विलक्षण सौंदर्यवाद से हाइकू की परंपरा को समृद्ध किया है, वहीं इस्सा की असाधारण करुणा इन्हें हाइकू के नवजागरण और आधुनिकीकरण का महत्वपूर्ण कवि बनाती है।

इनका एक हाइकू है –
देखो दादुर
ऊंचे आसन पर
टर्राता।

इसकी तुलना जरा बाशो से कीजिए –

ताल पुराना
कूदा दादुर
गुड्प।
(अनु. – अज्ञेय)

जहाँ बाशो का दादुर तालाब की गहराइयाँ जांचता है, इस्सा का दादुर हमारे समाज में मौजूद वर्गीकरण का परिहास करते हैं। जहाँ बाशो के हाइकू में दर्शन प्रमुख है, इस्सा के हाइकू जन साधारण की विडम्बनाओं को समेटती है। बाशो और बुसोन ने हाइकू जैसी विशिष्ट कला को जन तक पहुंचाने का महत्वपूर्ण काम किया है। वहीं इस्सा की कविताओं में विडम्बना है, सामाजिक अनुष्ठान और सांसारिकता के प्रति विसंगति है। इनकी दृष्टि व्यक्तिपरक है, जिसमें सामान्य जीवन का ठहराव है, जीव जंतुओं और बच्चों के प्रति अगाध प्रेम है, और ऊंचे आसनों पर आसीन अधिनायक के प्रति वितृष्णा भी।

बाशो के दो हज़ार हाइकू की तुलना में इस्सा ने बीस हज़ार हाइकू लिखे हैं, जिनमें अधिकांश मेंढक, जुगनू, मच्छर, मक्खी, चिड़िया और घोंघे जैसे साधारण जीव जंतुओं पर लिखे गए हैं। इनका मानवीकरण करते हुए ये इन तुच्छ समझे जाने वाले प्राणियों में प्राण तलाशते हैं, और इनके माध्यम से मानवीय आकांक्षाओं और दुखों की निरर्थकता को भी उकेरते चले जाते हैं। प्रकृति में पुरुष की तलाश करते इनके हाइकू में विषाद भी है, और मानवीय स्थिति के प्रति असीम करुणा भी। इनका एक हाइकू है –

हे घोंघा
फूजी पर्वत चढ़ो
मगर धीरे, धीरे!

इस्सा का काव्य दृश्य में दर्शन तलाशता काव्य है। उक्त हाइकू में कवि स्वयं घोंघा है, जिनका अधिकाँश जीवन भी यात्रा में ही बीता। ‘धीरे’ शब्द की पुनरावृत्ति यात्रा की लम्बी समयावधि को कविता चित्र में रचते हुए क्षण में समेट लेती है। कवि एज्रा पौंड का मानना था कि दृश्य ही वर्णन है, और दृश्य शब्दों की औपचारिकता से परे है। दृश्य की इसी क्षणिकता और भ्रमपूर्णता को दर्शाते हुए स्वयं इस्सा उच्छिष्टवर्गवाद से मुक्त दिखलाई पड़ते हैं। यहाँ इस्सा और बाशो में ज़्यादा फ़र्क़ नज़र नहीं आता। संसार की बारीकियों के प्रति इनकी यही जागरूकता इन्हें बाशो के वारिस होने का सर्वाधिक अधिकार प्रदान कर देती है।

जीवन की वेदना से भरे इस्सा के हाइकू इनके असली अनुभवों से सरोकार रखते हैं। इस्सा का अपना जीवन दुखमय रहा, और यह इनकी कविता में परिलक्षित भी होता है। जब ये तीन साल के थे, तब इनकी माँ चल बसी। अपनी सौतेली माँ के साथ भी इनके सम्बन्ध अच्छे नहीं रहे। इस्सा की देखभाल इनकी दादी करती थी, जो तब गुज़र गई जब ये चौदह साल के थे। अपने जीवन में विरक्त और अशांत रहते हुए इस्सा ने खेत खलिहानों में अधिक समय बिताना शुरू कर दिया और बौद्ध दर्शन और प्रकृति से जुड़ते चले गए। अपने बचपन के दुखों को याद करते हुए इस्सा ने लिखा है –

मेरे पास
आकर खेलो
मातृहीन गौरैया।

इस्सा ने ईदो (टोक्यो) में पढ़ाई की और अगले कई वर्षों तक जापान की यात्रा करते रहे। इसी समयावधि में ये बौद्ध दर्शन से जुड़े और हाइकू के संसार में प्रवेश किया। कई वर्षों तक एकांत में यात्रा करने के पश्चात ये अपने गांव लौटे और किकु नाम की स्त्री से विवाह किया। थोड़े दिनों के सुख के बाद इनके दुख लौट आए। इनकी पहली बेटी ढ़ाई साल की उम्र में चल बसी, जिसकी स्मृति में इस्सा ने लिखा –

ओस की पृथ्वी
ओस की पृथ्वी है
फिर भी, फिर भी।

इस कविता को हाइकू के दर्शन का विखंडन करते हाइकू की तरह पढ़ा जा सकता है। ओस बौद्ध परंपरा में क्षणिकता का प्रतीक है। हाइकू का दर्शन इसी क्षण को देखने का दर्शन है और जीवन इन्हीं क्षणों का संयोजन। इस्सा अपने हाइकू में जीवन की क्षणिकता को स्वीकारते हैं, लेकिन ‘फिर भी’ यह ज्ञान इन्हें किसी प्रकार का कोई आश्वासन नहीं दे पता। इस क्षण इस्सा अपने ज्ञान की शरण में भी हैं और ज्ञान से अतृप्त भी। हाइकू पूर्णता का उपलक्ष्य है, और यहाँ ओस न केवल क्षणिक है, बल्कि इस क्षणिकता में सांत्वना देती सुंदरता भी। हाइकू की लक्षणा शक्ति की कैसी विलक्षण कविता!

ओस के बिम्ब की तरह ‘फिर भी’ वाक्यांश की भी पुनरावृत्ति हुई है। पहले प्रयोग में यह ढाढ़स बांधने का काम करता है, और दूसरे प्रयोग में निषेध का निषेध करते हुए इस्सा को पुनः इनकी पीड़ा में वापस धकेल देता है। यही विडम्बना इस्सा की उन सभी हाइकू में दिखलाई पड़ती हैं, जो इनके जीवन के दुखों को समेटती हैं। करुणा तक पहुँचने के लिए ये संसार की उदासी नहीं बल्कि विडम्बना तलाशते हैं। अपनी तीसरी बेटी की मृत्यु के बाद इस्सा ने उसकी कब्र पर लिखा –

हवा गिरो –
लाल रंग के फूल
उसे पसंद थे।

यही विडम्बना इस्सा के हाइकू का अभिन्न अंग है। बेटी के चले जाने के बाद उसकी पसंद के फूलों से गिरने की गुज़ारिश करना भी कवि की पीड़ा का सूचक है, जिनमें सांत्वना देने को वह पुनः प्रकृति की शरण में जाता है।

इस्सा की कई कविताओं में यही विडम्बना हास्य भी पैदा करती है। ये कभी बुद्ध की प्रार्थना करते हुए मच्छरों को मारते हैं, तो कभी मक्खी को हाथ रगड़ कर प्राणदान मांगते देखते हैं। कभी चिड़िया ऐसे चीखती है जैसे पहली बार पहाड़ देखा हो, तो कभी यही चिड़िया हमें यह कहकर चिढ़ाती है कि वह तालाब में नहीं गिरेगी। गहराई से देखने पर ये हाइकू हमारे जीवन की विसंगतियों पर तटस्थ कवि की आलोचना की तरह दिखलाई पड़ने लगती है जिनमें व्यंजना शक्ति का खुलकर प्रयोग किया गया है।

चाहे वह ओस हो या झरते हुए फूल, इस्सा के हाइकू में करुणा अक्सर कीगो (ऋतुसूचक शब्द) के माध्यम से सामने आती है। ये इनकी मनोस्थिति के रूपक हैं। बर्फ का पिघलना उम्मीद जगाता है और वसंत में अवसाद निहित है। कुछ वर्षों के पश्चात अपनी पत्नी किकु के देहांत पर इस्सा ने लिखा –

सबसे लम्बी आयु
इन सबसे लम्बी आयु
इस क्रूर शरद की!

ऑस्ट्रियन दार्शनिक लुडविग विट्गेंस्टाइन शब्दों और उनसे जन्मे दृश्यों में गहरी दिलचस्पी रखते थे। ट्राक्टाटस लॉजिको फिलॉसोफीकस (1921) में उन्होंने लिखा है कि भाषा को जीवंत दृश्यों की तरह समझा जाना चाहिए। शब्दों से कई दृश्य जन्म लेते हैं और इन दृश्यों के बीच का कारोबार एक प्रकार का खेल है। हमें इस्सा के हाइकू में इसी खेल का पारम्परिक रुप मिलता है। सत्रह ओन (ध्वनि) में लिखे जाने की वजह से हाइकू का हर शब्द महत्वपूर्ण होता है। हर अगला शब्द दृश्य की रचना में एक नए दाँव की तरह खेला जाता है। इस्सा कहते हैं –

प्रतिबिंबित –
पतंगे की पुतली में
पहाड़।

इन पंक्तियों में पतंगा, पहाड़ और पुतली से महत्वपूर्ण है प्रतिबिंबित होने की प्रक्रिया। इस्सा संसार की विकरालता के सामने जहाँ एक तरफ पतंगे को अल्पता को दर्शाते हैं, वहीं पुतली में संसार को समेट पहाड़ को भी नगण्य करार देते हैं। पतंगा और पहाड़ अनायास ही अमूर्त हो जाते हैं, और प्रतिबिंब की रचना का क्षण जीवंत हो उठता है।

हाइकू के अलावा इस्सा का गद्य भी महत्वपूर्ण है। इनके ताँका और हाइगा में भी साधारण जन जीवन के दृश्यों का दर्शन निहित है। अपनी कविताओं को अक्सर ये रेखाचित्रों से सजाते थे जिन्हें इनकी डायरी – ओरा गा हारू (मेरे जीवन का वसंत) में देखा जा सकता। यह डायरी इनके विषाद और इनकी बौद्धिक और तात्विक साधना की कुंजी है। इस डायरी में ये अपनी बेटी साटो की याद में अपनी स्थिति के बारे में लिखते हैं – “यह गरीब पेड़ न मर सकता है और न फल अथवा फूल दे सकता है। अस्तित्व ही इसका संघर्ष है।”

इस्सा ने अपनी पत्नी किकु और आठ संतान की मृत्यु के पश्चात दो और विवाह किए। इनकी दूसरी पत्नी ने इन्हें त्याग दिया और तीसरी पत्नी से विवाह के दो वर्षों के बाद इस्सा का देहांत हो गया। अपने जीवन संघर्षों को इस्सा ने एक हाइकू में समेटा है –

मत भूलो –
हम नरक से गुज़रते हैं
फूलों को निहारते हुए।

प्रस्तुत हाइकू के अनुवाद अंग्रेजी से किए गए हैं। हर हाइकू के अनुवाद की प्रक्रिया में अंग्रेजी के विभिन्न अनुवादकों को पढ़ा गया है जिनमें लेविस मैकेंजी, रेजीनॉल्ड ब्लीथ और रोबर्ट हास प्रमुख हैं। हाइकू के दर्शन को उजागर करने में अज्ञेय का मेरे विचारों पर विशेष प्रभाव रहा है। इनके माध्यम से मैं हाइकू जैसी सुन्दर विधा से जुड़ सका हूँ। इस्सा का अनुवाद करते हुए मैंने ज़ेन बौद्ध दर्शन को नज़दीक से समझा है और एक अभूतपूर्व एकांत और शान्ति का अनुभव किया है। आशा है आप भी करेंगे।

***
कोबायाशी इस्सा के हाइकू –

उम्र पूछे जाने पर
नए कीमोनो पहने बच्चे ने दिखाई
पाँच उँगलियाँ।

बुद्ध से प्रार्थना करता
मैं मारता
मच्छरों को।

चिंता मत करो, मकड़ियो,
मैं रहता हूँ घर में
लापरवाह।

इस कड़ी धूप में
मेरी छाया
कितनी ठंडी।

द्वार के सामने –
मेरी छड़ी ने बनाई नदी
पिघले बर्फ की।

मत मारो!
कहती मक्खी
हाथ रगड़ कर।

मूली खींचते आदमी ने
मुझे रास्ता दिखाया
मूली से।

चिड़िया चीखी
जैसे पहली बार देखा
पहाड़।

मेंढक! मानो
लेगा उगल
बादल।

कौआ चलता
जैसे जोत रहा
खेत।

पहाड़ी मंदिर –
बर्फ के नीचे दबी
एक घंटी।

स्थिरता –
झील की गहराई में
बादल।

नकल करते बच्चे
जलकौवों से
सुन्दर।

चंचल टिड्डे
ध्यान से – कुचलो मत
ओस की मोतियों को।

हे घोंघा
फूजी पर्वत चढ़ो
मगर धीरे, धीरे!

प्रतिबिंबित –
पतंगे की पुतली में
पहाड़।

जन्म के समय स्नान
मृत्यु के समय स्नान
कितना निरर्थक!

बसंत में बारिश
प्यारी लड़की
लेती जम्हाई।

एक विशाल दादुर और मैं,
देखते एक दूसरे को,
निस्तब्ध।

गर्मी की रात-
तारों के बीच
कानाफूसी।

हवा गिरो –
लाल रंग के फूल
उसे पसंद थे।

मत भूलो –
हम नरक से गुज़रते हैं
फूलों को निहारते हुए।

खिली चेरी की छाया में
अपरिचित
कोई नहीं।

अपनी पतंग से लिपट
गहरी नींद में जाती
बच्ची।

सबसे लम्बा जीवन
हम सबसे लम्बा जीवन
इस कठोर शरद का!

हलकी बर्फ-
एक कुत्ता खोदता
सड़क को।

हलकी आहट
कौन चला आ रहा है
धुंध में?

बह जाओ
मेरी बर्फ भी…
चिकुमा नदी

मैं जा रहा हूँ,
मक्खियो! आराम करो,
प्रेम करो।

बुद्ध की छवि के नीचे
वसंत के फूल
क्लांत।

मेरे पास
आकर खेलो
मातृहीन गौरैया।

कब्रिस्तान में
बूढ़े कुत्ते
रास्ता दिखाते।

बर्फ पिघलती
गांव में बाढ़ आई
बच्चों की।

कीड़े भी हम जैसे
कुछ गाते
कुछ नहीं गाते।

नहीं गिरूंगी
झील में मैं –
चिड़िया चिढ़ाती।

मुझे देख
तीतर चलती
दबे पांव।

खुली खिड़की में
उजला चाँद
टर्राते मेंढ़क।

चेरी के खिलना –
हर पेड़ के नीचे
बुद्ध बैठे हुए।

पत्तेदार छाया में
तरबूज के तकिये पर सोया
बिलौटा।

कटाई का चाँद
समाधी में बैठे
बुद्ध।

मेरे मरने के बाद
मेरी कब्र पर प्रेम करना
टिड्डे!

बूढा कुत्ता
सुन रहा
केंचुओं का संगीत।

धीरे, धीरे
गिरता बर्फ
कितना स्वादिष्ट!

नाचती तितलियाँ
भूला रास्ता
थोड़ी देर।

बादल में चिड़ियाँ
सागर किनारे लोग –
छुट्टी का दिन।

तालियां बजाती
माँ बच्चे को
नाच सिखाती।

धान के खेत से बहती धार
घर की ओर लौटती
मछली।

नन्ही गौरैया
चीं! चीं! चीं!
रोती।

कठफोड़वा –
सूर्यास्त में चमकती
लाल पत्ती।

सूर्यास्त –
मेंढक की आँखों में आंसू
चमकते हुए।

नींद में गांव
पहाड़ पर
कुहरे की चादर।

तितली मंडराती
लौटती
बुद्ध की गोद में।

किस तारे के नीचे
मेरा घर?
बताओ, शरद की हवा।

चट्टान पर कछुए का
आज सामान्य
लंबा दिन।

नई दूब –
एक गौरैया और मैं
खेलते।

देखो दादुर
ऊंचे आसन पर
टर्राता।

माँ याद आती
जब भी मैं
देखता सागर।

ओस की पृथ्वी
ओस की पृथ्वी है
फिर भी, फिर भी।

 

Issa

अनुवाद एवं टिपण्णी – सौरभ राय / सदानीरा 11 से साभार

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2 responses to “दृश्य में दर्शन की तलाश : कोबायाशी इस्सा के हाइकू

  1. Thanks Saurabh. Maine haiku padi hai English translation me. Specially basho. Koboyashi bhi padha hai, magar Hindi me pahli baar. Maza aya. Slowly slowly. Mogami river.
    Basho :
    An old Pond
    A frog jumps in
    The sound of water (mizu na oto)

    Scott Alexander :
    By an ancient pond
    A bullfrog sits on a rock:
    Waiting for Basho.

    hahhaha

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