‘मोक्षधरा’ सुधीर रंजन सिंह का दूसरा काव्य संग्रह है। इनके पहले और दूसरे संग्रह के बीच दो दशकों की लम्बी समयावधि, जहाँ एक तरफ कवि की परिपक्वता से हमें आश्वासित करती है, वहीं दूसरी तरफ कवि की अपनी ज़मीन को धैर्यपूर्वक तलाशने के प्रति प्रतिबद्धता की ओर भी इशारा करती है। इसी बीच उन्होंने भर्तृहरि के काव्य श्लोकों की अनुरचना का महत्वपूर्ण काम किया है। ‘मोक्षधरा’ की कविताओं में भी वह झलकता है। वही सघन जीवन-बोध जिसमें राग और विराग समान अनुभव के दो छोर हैं। कवि कभी चिड़िया में सूर्योदय को दुबका हुआ देखता है, तो कभी लोगों का अपनी-अपनी बसों में घुसना अपने घरों में घुसने की तरह देखता है। Continue reading
Tag Archives: प्रगतिशील वसुधा
कवि का मोक्ष कविता है
Posted in हिंदी, Philosophy
Tagged आलोचना, कविता, प्रगतिशील वसुधा, मोक्षधरा, वसुधा, सूधीर रंजन सिंह, सौरभ राय, Mokshdhara, sourav roy, Sudhir Ranjan Singh