
लेखक पेरूमल मुरुगन के खुदको मृत घोषित करने के एक वर्ष के भीतर पंसारे और कलबुर्गी जैसे रेशनलिस्ट हमारे देश में बढ़ रही फासिस्ट ताकतों के हाथ मारे गए। विरोध का दमन हमारे देश में कई सालों से होता आया है। वरिष्ठ पत्रकार पी साईनाथ के अनुसार ग्रामीण भारत में अपने हक के आवाज़ उठाना अक्सर आपको मुसीबत में डाल सकता है। ज़मीन छिनने पर अगर किसान आवाज़ उठाए, तो उसे माओबादी करार कुचल दिया जाता है। इसी क्रूर दोषारोपण का एक नया रूप हम इन दिनों शहरों में देख रहे हैं, जहाँ सत्ता पक्ष और उनके समर्थक हर प्रश्न पूछने वाले को देशद्रोही करार देने को तुली है। बहरहाल, लेखक मुरुगन के सन्दर्भ में पिछले साल कुछ लिखा था जो इंडियारी का पहला सम्पादकीय भी था। कुछ संशोधनों के साथ इसे प्रिय पाठकों के साथ दोबारा साझा कर रहा हूँ।