काल बैसाखी

काल बैसाखी – सुपरिचित कवि सौरभ राय का यह नवीनतम कविता संग्रह न केवल कवि के निजी विकास को अभिप्रमाणित करता है वरन समकालीन हिन्दी कविता के लिए एक नये अनुभव-लोक का आविष्कार भी करता है। पिछले कुछ वर्षों में जिन कवियों ने अपनी प्रतिभा और काव्य-व्यवहार से हिन्दी पाठकों में गहरी उत्सुकता जगायी है उनमें सौरभ राय अन्यतम हैं। यह संग्रह कवि के व्यक्तित्व के और उसकी जीवन संलग्नता के सर्वथा नये आयामों को प्रस्तुत करता है। सुदूर स्मृतियों से लेकर हाशिए पर पड़े जीवन और भूमंडलीकरण के त्रास से बिद्ध वर्तमान सामाजिक यथार्थ तक सौरभ की कविताओं का परिक्रमा पथ विस्तृत और बहुल है। घर, छूटे या छूटते घर की यादें, दादू दादी कुटुम्ब के मर्मस्पर्शी चित्रों की एक पूरी वीथी यहाँ मौजूद है। इसमें एक बहुत प्यारी कविता दादी के नये डेंचर्स पर है जो यूँ भी अनूठा विषय है। सौरभ ने कुछ अप्रत्याशित विषयों पर कविताएँ लिखी हैं जिनमें एक कविता त्रिभुज भी है। और एक कविता राजचिन्ह शेरों के लोप परंतु उनकी प्रतीकात्मक राजनैतिक या शासकीय उपस्थिति पर है — भारत, यूरोपीय देशों से लेकर श्रीलंका व इंग्लैंड तक, जो एक नायाब और बेधक राजनैतिक कविता है। यह कविता सौरभ का विशिष्ट योगदान है समकालीन कविता को और इस बात का प्रमाण कि राजनैतिक कविता किसी भी तरह से संभव है, लगभग भूमिगत विचारबोध के साथ। दंतेवाड़ा के ज़िक्र वाली कविता भी इसी कोटि की कविता है जहाँ कुछ भी सतह पर गोचर नहीं है, लेकिन भीतर भीतर गहरी धधक है। इधर के कवियों की यह नवोन्मेषी प्रतिबद्धता ध्यातव्य है।

सौरभ राय की कुछ मार्मिक कविताएँ पारिवारिक जीवन को लेकर रची गयी हैं जिनमें एक कविता बेटी के प्रति भी है। बेटी पर लिखी यह कविता मार्मिक तो है ही, साथ ही यह जीवन के वृहत्तर आशयों और संभावनाओं को भी इंगित करती है। सौरभ ने शादी का फ़ोटोग्राफ़र और कार सर का ट्यूशन तथा काफ़्का की कॉपी सरीखी कविताओं में परिवार के अर्थ को विस्तार दिया है और बड़े अपनेपन से अपने पड़ोस को कविता में नागरिकता दी है। ऐसा करते हुए सौरभ राय ने एक नयी भाषा संभव की है जो प्रांजल भी है और खुरदुरी भी। विज्ञान के ब्योरों का भी कल्पनाप्रवण उपयोग सौरभ करते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि ऐसी कविताएँ केवल इसी शताब्दी में संभव थीं जो सौरभ और उनके समकक्ष कवि आज रच रहे हैं।

इस संग्रह के साथ सौरभ ने अपना निजी स्वर पा लिया है जो कल होकर हिन्दी कविता का केन्द्रीय स्वर बनेगा, ऐसी आशा है।

-अरुण कमल

काल बैसाखी कविता संग्रह यहाँ उपलब्ध है।

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